घर
काव्य साहित्य | कविता हिमानी शर्मा15 Apr 2025 (अंक: 275, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
इस बार जब घर गई,
वो घर मुझसे और क़रीब हो गया।
जिसे बचपन में समझ न सकी,
वो बिछड़ते-बिछड़ते बहुत अजीब हो गया।
माँ का यूँ ही पीछे-पीछे दौड़ आना,
पापा का हर बार कुछ लेकर मुस्कुराना।
भाई जिसके संग सीखी हर बात,
वो सब बन गया अब लौट आने की सौग़ात।
इस बार जब निकली उस घर की देहरी से,
जैसे कह रहा हो वो मुझसे धीरे से—
“जा जहाँ भी, पर मैं तेरे पास ही रहूँगा,
तेरी हर ख़ुशी में तेरे आसपास ही रहूँगा।”
उस आवाज़ ने दिल को इक एहसास हो गया,
कि मेरा घर मुझसे कभी दूर नहीं,
बल्कि और भी ख़ास हो गया।
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