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बिखरी हूँ

बिखरी हूँ जब से, फिर मैं सिमटी नहीं हूँ। 
निखरी हूँ थोड़ा, जब से बिखरने लगी हूँ। 
 
बिगड़ी हूँ जब-जब, ख़ुद से सँवरने लगी हूँ। 
होकर भी सबकी कुछ-कुछ, अलग सी रही हूँ। 
 
गिरने पर उठकर, फिर से चलने लगी हूँ। 
और राहों को छोड़ पीछे, मैं बढ़ने लगी हूँ। 
 
बढ़ते हुए कुछ-कुछ, कहने लगी हूँ। 
सुकून में अब, चुप रहने लगी हूँ।
 
बिखरी हूँ जब से, फिर मैं सिमटी नहीं हूँ। 
निखरी हूँ थोड़ा, जब से बिखरने लगी हूँ। 

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टिप्पणियाँ

Shalini 2022/10/08 08:32 AM

I wish i could have this talent

Ankita Joshi 2022/10/06 06:33 PM

Just amazing

Vikash Sharma 2022/10/06 05:17 PM

There is a quote that prior to shine like Sun, We should also burn like Sun. This poem signifies that.

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