बिखरी हूँ
काव्य साहित्य | कविता हिमानी शर्मा1 Sep 2022 (अंक: 212, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
बिखरी हूँ जब से, फिर मैं सिमटी नहीं हूँ।
निखरी हूँ थोड़ा, जब से बिखरने लगी हूँ।
बिगड़ी हूँ जब-जब, ख़ुद से सँवरने लगी हूँ।
होकर भी सबकी कुछ-कुछ, अलग सी रही हूँ।
गिरने पर उठकर, फिर से चलने लगी हूँ।
और राहों को छोड़ पीछे, मैं बढ़ने लगी हूँ।
बढ़ते हुए कुछ-कुछ, कहने लगी हूँ।
सुकून में अब, चुप रहने लगी हूँ।
बिखरी हूँ जब से, फिर मैं सिमटी नहीं हूँ।
निखरी हूँ थोड़ा, जब से बिखरने लगी हूँ।
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टिप्पणियाँ
Ankita Joshi 2022/10/06 06:33 PM
Just amazing
Vikash Sharma 2022/10/06 05:17 PM
There is a quote that prior to shine like Sun, We should also burn like Sun. This poem signifies that.
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ऑडियो
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Shalini 2022/10/08 08:32 AM
I wish i could have this talent