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फागुन के दोहे


आँचल में रख प्रेम-धन, गोरी गाये गीत। 
रे छलिया फागुन बता, किधर मिले मनमीत॥
 
इन्द्रजाल सा डालती, फागुन की मधु-गंध। 
मन में सागर प्रेम का, तोड़ रहा तटबंध॥
 
कभी न आयी समझ में, फागुन की यह रीति। 
मतवारी हैं इन्द्रियाँ, मन में जागे प्रीति॥
 
फागुन की आवारगी, गयी बदन को चूम। 
प्रेम-राग गाने लगे, तन-मन दोनों झूम॥
 
फागुन की मादक अदा, करती अति बेचैन। 
प्रणयी को खोजे फिरें, प्रेम-पिपासे नैन॥
 
फक्कड़ फागुन गा रहा, अपनी धुन में मस्त। 
सुने फाग सौहार्द के, हुए अभाव शिकस्त॥
 
दी मस्ती की सम्पदा, फागुन ने भर अंक। 
सब ही मनमौजी हुए, क्या राजा, क्या रंक॥
 
योगी, भोगी, आलसी, अप्रतिभ, संत-असंत। 
फागुन ने सबको किया, और अधिक जीवंत॥
 
फागुन की मस्ती चढ़ी, रिश्ते हुए अमान। 
हँसी ठिठोली रह गयी, जीवन की पहचान॥
 
फागुन की सुकुमार-वय, रही सभी को मोह। 
जीवन के हर रूप में हुआ पल्लवित छोह॥

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