त्रिलोक सिंह ठकुरेला के दोहे - 3
काव्य साहित्य | दोहे त्रिलोक सिंह ठकुरेला1 Nov 2019
रिश्तों में रस घोलती, अपनेपन की गंध।
हैं काग़ज़ के फूल से, प्रेमरहित सम्बंध॥
दुख कपूर उड़ जाएगा, मन की गठरी खोल।
मरहम से कमतर नहीं, ढाढ़स के दो बोल॥
धर्मनिष्ठ मैं भी घना, किंतु मुझे यह खेद।
यहाँ धर्म की आड़ में, क्यों उग आये भेद॥
जीवन की सौ उलझनें, दो पल बैठैं पास।
तेरे मेरे दुख हरे, यह निश्छल परिहास॥
क़ीमत नहीं मनुष्य की, मूल्यवान गुण, बोल।
दो कौड़ी की सीप है, मोती है अनमोल॥
लघु पगडंडी प्रेम की, गयी सुखों की ओर।
स्वार्थ-भँवर में जो फँसे, उनका ओर न छोर॥
भावों की कुछ ऊष्मा, मन में रखो सहेज।
सूरज हठी घमंड का, होना है निस्तेज॥
चाहे सब अनुकूल हो, चाहे हो प्रतिकूल।
जीवन के हर मोड़ पर, रखना साथ उसूल॥
धरती का मन देखकर, रिमझिम बरसा मेह।
बूँद बूँद से सुख झरा, झूमी प्यासी देह॥
आशाओं की नाव रख, साहस की पतवार।
श्रम के सागर में उतर, यदि होना है पार॥
मॉल खड़ा है गर्व से, लेकर बहुविधि माल।
स्वागत पाता, जो वहाँ, सिक्के रहा उछाल॥
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