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सोचा नहीं था . . .

 

सुबह हो गई थी, दिशाएँ लालिमा लिए हुई थीं। अभी अरुणोदय नहीं हुआ था नीलिमा ने खिड़की के परदे हटाए, बाहर फ़र्श में गीलापन था। शायद रात को बारिश हुई थी। नीलिमा ने अपने बाल मोड़े और क्लश्चर लगा लिया। बाथरूम में जाकर गीजर ऑन किया और जल्दी-जल्दी घर के काम निपटाने लगी . . . 

“ममा आज तारीख़ है ना कोर्ट में?” 

“हूँ,” नीलिमा ने सिर हिलाया 

कोर्ट का नाम सुनते ही वह कुछ परेशान सी हुई। वह चाहती भी कहाँ थी कोर्ट-कचहरी! 

तरुण ने उसे मजबूर कर दिया था, अपने पुरखों की मेहनत को जुए-शराब में उड़ा रहा था जिसे नीलिमा देख न पाई और अपना हिस्सा माँग बैठी उससे। जिसे देने से तरुण ने साफ़ मना कर दिया यह कहकर कि, “बाप-दादाओं की जायदाद में सिर्फ़ लड़कों की हिस्सेदारी होती है, लड़कियों की नहीं। ये हमारे ख़ानदान की रीत है कि जायदाद में लड़कियों को हिस्सा नहीं दिया जाता।” 

इस बात पर उन दोनों की बहस हो गई थी जो उन्हें कोर्ट तक घसीट लाई! 

“मम्मा पानी गरम हो गया आप नहा लीजिए नहीं तो कोर्ट जाने में देर हो जाएगी आपको।” 

नीलिमा ने घड़ी की ओर देखा, साढ़े नौ बज गए थे। उसने अपना तौलिया उठाया और बाथरूम की ओर चल दी। 

पिंकी ने अपनी मम्मा के लिए पराठे और पालक की सब्ज़ी बना दी थी। नाश्ते की टेबल पर बैठी नीलिमा बहुत उदास थी। दुखी मन से नाश्ता कर वह कोर्ट चल दी। 

कोर्ट में कुछ देर बहस हुई और अंतिम सुनवाई हेतु तीन माह बाद की तारीख़ निश्चित हुई। 

नीलिमा को बहुत चिंता होने लगी कि तीन माह तक तो तरुण सब कुछ जुए-नशे में उड़ा देगा तो उसने जज साहब से दरख़्वास्त की, “जज साहब जब तक फ़ैसला नहीं हो जाता तब तक ऐसा हो सकता है कि तरुण ज़रूरतों के अलावा अय्याशी में अपनी दौलत ना उड़ाए।” 

जज साहब ने नीलिमा की बात को सुनते हुए कहा, “अंतिम फ़ैसला होने तक तरुण अपनी ज़रूरतों के अलावा अय्याशी एवं मौज–मस्ती हेतु पुरखों की धन–संपत्ति ख़र्च नहीं करेगा और रोज़ के ख़र्चे का ब्योरा कोर्ट में पेश करेगा।”

ऐसा सुनते ही तरुण आग-बबूला हो उठा और नीलिमा की ओर देखकर “तुझे तो मैं देख लूँगा” कहते हुए कोर्ट के बाहर चला गया। 

नीलिमा भी भारी मन से कोर्ट के बाहर आ गई। वो कहाँ चाहती थी ये सब, उसने ऑटो लिया और घर की ओर चल दी। उसे अपने बचपन के दिन याद आने लगे, जब वे दोनों अपने आँगन में खेलते थे। कितना प्रेम था दोनों भाई-बहनों में! हँसता-खेलता परिवार था उनका। दादा-दादी, माँ-पापा और भाई-बहिन . . . 

“तरुण आ जाओ बेटा बहुत खेल लिया हाथ-मुँह धोकर दूध पीलो ‌।” 

“नहीं मम्मा मैंं दूध नहीं पिऊँगा, दीदी को दे दो।” 

“दीदी के लिए भी है आ जाओ दोनों।” 

तरुण पैर पटकता हुआ दादी के पास जाता है . . . “दादी मुझे दूध नहीं पीना।” 

“क्यों?” 

“मुझे अच्छा नहीं लगता,” मुँह बनाते हुए बोला। 

दादी उसका सिर सहलाते हुए उसे लाड़ किया और समझा-बुझाकर दूध पिला दिया। नीलिमा भी हाथ-मुँह धोकर दूध पी लिया और पढ़ने बैठ गयी। तरुण ने दूध तो पी लिया था पर पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता था तो वह पढ़ाई न करने के बहाने ढूँढ़ता था और माँ के पढ़ाई कर कहने पर दादी के पास जा छुपता था। और दादी भी “छोटा ही तो है पढ़ लेगा क्यों पीछे पड़ी रहती हो उसके” कहकर उसकी माँ को चुप करा देती थी। माँ के चले जाने पर वह नीलिमा के पास चला जाता, “दीदी चलो न चैस्स खेलते हैं जब देखो पढ़ती रहती हो!” 

नीलिमा मना करती तो वह रुआँसा हो जाता और नीलिमा उसका उदास चेहरा देखकर पढ़ना छोड़ उसके साथ खेलने बैठ जाती। बहुत प्यार था दोनों भाई-बहिन में . . . एक-दूसरे के बग़ैर रह ही नहीं पाते थे।

”मैडम आपका घर आ गया।” 

“हूँ,” नीलिमा की तन्द्रा टूटी और पर्स से पैसे निकालकर उसने ऑटो वाले को दिए, दरवाज़े के समीप जाकर डोर बैल्ल बजायी। दरवाज़ा पिंकी ने खोला। 

“मम्मा क्या हुआ कोर्ट में?” 

“कुछ नहीं तारीख़ बढ़ा दी है।” 

“थकी सी लग रही हो बहुत . . . चाय बना दूँ?” 

“नहीं, मैं थोड़ी देर आराम करने जा रही हूँ मुझे डिस्टर्ब मत करना,” वह अपने बेडरूम में आ गई और पर्स को सामने की दीवार में टाँगकर बैड पर लेट गई। नींद तो नहीं आई पर एक बेचैनी सी उसे अपने आग़ोश में लेने लगी। अपने भाई के साथ बिताये पल याद आने लगे जिस दिन नीलिमा की शादी तय हुई थी कितना उदास हो गया था तरुण! 

“दीदी आप शादी करके चली जाओगी?” 

“हाँ मेरे भय्यू लड़कियों को तो जाना ही होता है ना . . . ये रीत है।” 

“मैं नहीं मानता ऐसी कोई रीत जो मुझे मेरी दीदी से अलग करे,” कहते हुए वो नीलिमा के गले लगकर बहुत रोया था उस दिन . . . 

बचपन में दोनों साथ-साथ स्कूल जाते। स्कूल में किसी का बर्थडे होता तो टॉफ़ी या चॉकलेट जो भी मिलती दोनों एक दूसरे के लिए लाते, कभी दोनों में झगड़ा नहीं होता था। एक एक्सीडेंट में मम्मी, दादा-दादी चल बसे थे तो सारी ज़िम्मेदारी नीलिमा के छोटे कन्धों पर आ गई। माँ, दादा-दादी के जाने से तरुण सहमा-सहमा सा रहने लगा। नीलिमा ने तरुण को माँ की तरह पाला। उसकी देख-रेख के साथ-साथ अपने पापा का भी ख़्याल रखती। पापा को माँ और दादा-दादी के जाने से सदमा-सा लग गया। उन्होंने अब पीना भी शुरू कर दिया था। जिसका प्रभाव बच्चों पर भी पड़ा। तरुण अपने पापा को नशे में डूबा देखता था अक़्सर वो अपनी दीदी से पूछता, “दीदी पापा ये कौन सा शरबत पीते हैं जिससे वे होश में ही नहीं रहते . . . हमेशा सोये से रहते हैं।” 

दीदी क्या उत्तर दे, वे उसे वहाँ से दूसरे कमरे में ले जाती, “भय्यू पापा ना बीमार हैं आप उनको परेशान मत करना,” कहती वह अपने को भी मनाती . . . 

समय अपनी रफ़्तार से बढ़ता रहा। एक दिन पता चला कि उसके पापा के फेफड़े ख़राब हो गये हैं और वे अपने जीवित रहते नीलिमा के हाथ पीले करना चाहते हैं। नीलिमा ने पहले तो मना किया जब उसके पापा ने कहा “मेरी अंतिम इच्छा है बिट्टू क्या पूरी नहीं करोगी?” तो वह हार सी गयी अपने पापा की इच्छा के सामने। लेकिन अपने भय्यू की चिंता भी सताने लगी कि उसके जाने के बाद उसका क्या होगा, “पापा आप मेरे जाने के बाद भय्यू का ख़्याल रख लोगे ना . . . उसकी पढ़ाई, खाना-पीना और हाईस्कूल का बोर्ड भी है उसका?” 

पापा ने आँखों में आँसू भरकर अपनी बिट्टू को निहारा और उसके सर पर हाथ रखकर मन ही मन कुछ कहा भी और उठकर चल दिए। 

आख़िर नीलिमा की शादी तय हो गई। जिस दिन नीलिमा की शादी तय हुई तरुण बहुत रोया था उस दिन। शादी का दिन भी आ गया और अब नीलिमा की विदाई का भी। तरुण ने रोते-रोते अपनी दीदी को विदा किया। शादी के एक महीने बाद ही पापा भी चल बसे। नीलिमा पर एक ओर तो ससुराल की ज़िम्मेदारी और दूसरी ओर भाई की भी, जिसे उसने पूरी तन्मयता के साथ निभाया भी। तरुण अब इंटर में था, किशोरावस्था पर पदार्पण! बुरी संगत का भी असर हो रहा था उसमें . . . पेरेंट्स-टीचर मीटिंग के दिन पता चला कि पिछले दो महीने से स्कूल आया ही नहीं है। नीलिमा को एक झटका-सा लगा ये सुनकर। घर पहुँचकर उसने अपने भय्यू से पूछा “तू स्कूल नहीं जा रहा क्या आजकल?” 

“नहीं तो दीदी किसने कहा ऐसा मैं तो रोज़ जाता हूँ।” 

“अच्छ्या! तेरे स्कूल से ही आ रही हूँ भय्यू क्यों झूठ बोल रहा है तू?” 

“तो सुनिए मुझे कोई पढ़ाई–वढ़ाई नहीं करनी।” 

“पढ़ाई नहीं करनी . . . मतलब! तो क्या करेगा तू?” 

“कुछ भी कर लूँगा, दुकान ही खोल लूँगा।” 

“भय्यू!” 

नीलिमा पहली बार चिल्लाई थी अपने भय्यू पर उस दिन। 

लाचार-सी वह अपने घर आ गई और अपने पति को सारी बात बताई . . . बात की गंभीरता को महसूस कर उन्होंने नीलिमा को समझाया, “मै समझाऊँगा उसे तुम परेशान मत होओ‌।” पर तरुण किसकी सुनने वाला था उसने किसी की भी न सुनी और इंटर की परीक्षा नहीं दी। दिन-भर अपने दोस्तों के साथ आवारागर्दी करता, सुनने में आ रहा था कि वह अब नशा भी करने लगा है। बाईस साल का होने पर भाई सँभल जायेगा सोच नीलिमा ने उसकी शादी करवा दी थी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ उसने अपनी पत्नी को भी इतना प्रताड़ित किया कि वह उसे छोड़कर चली गई और तलाक़ ले लिया। धीरे-धीरे तरुण ने पुरखों की सम्पत्ति को बेचना शुरू कर दिया। नीलिमा ये सब देखकर बहुत परेशान रहने लगी और चिंता से उसे बीपी, शुगर जैसी बीमारियाँ भी लग गईं। पर तरुण को कहाँ इन सबकी चिंता थी! जो दीदी जान से भी प्रिय थी उसे . . . वह आज उसकी सबसे बड़ी दुश्मन थी। 

“मम्मा दरवाज़ा खोलिए।” 

नीलिमा ने घड़ी देखी तो शाम के छह बज चुके थे। उसने दरवाज़ा खोला तो देखा पिंकी उसके लिए ग्रीन टी बनाकर लाई थी। 

“मम्मा आपकी ग्रीन टी . . . नींद आई आपको?” 

“हूँ” तो कह दिया था उसने पर उसकी आँखों से नींद कोसों दूर चली गई थी। अपने भाई की चिंता उसे अंदर ही अंदर खा सी रही थी। 

पिंकी ने अपनी माँ की आँखों को देखा जो सूजी हुई थी, “मम्मा आप झूठ बोल रही हो न? आप सोई नहीं बल्कि रो रही थी ना, मम्मा क्या है यार ये सब . . . आपको डॉक्टर ने मना किया है ना सोचने को! क्या आपकी चिंता से मामा ठीक हो जाएँगे? नशा करना छोड़ देंगे?” 

नीलिमा पिंकी को गले से लगा लिया, “पिंकी तुम पढ़ाई करो बेटा, जाओ इन सब बातों में मत पड़ो।”

“कैसे मम्मा? रोज़ ही घर में ऐसा माहौल रहता है! और आप मुझसे कहती हो कि इन सारी बातों में मत पड़ो . . . मम्मा क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम ये शहर छोड़कर ही कहीं दूर चले जाएँ?” 

“और आपका मामा? उस ऐसे ही छोड़ दूँ . . .! अपने बेटे की तरह पाला है उसे मैंने।” 

“पर उन्हें इसकी ख़बर नहीं है मम्मा!” 

“कोई बात नहीं पिंकी एक बार केस जीत जाऊँ तो क्या पता वह सुधर जाय . . . जब हाथ में पैसा ही नहीं होगा तो ये सब कैसे करेगा!” 

डोर बैल्ल की आवाज़ आई . . . 

“मम्मा शायद पापा आ गये,” उसने दौड़ते हुए दरवाज़ा खोला, सामने तरुण था, नशे में धुत्त्त! अपने पैरों पर खड़े होने की स्थिति में नहीं था। वह लड़खड़ा रहा था . . . पिंकी ने डरी-सहमी सी अपनी मम्मी को आवाज़ लगाई, “मम्मा . . . मम्मा जल्दी आओ मामा आए हैं।” 

नीलिमा सीढ़ी उतरी जल्दी-जल्दी . . . “भय्यू तुम यहाँ?” 

“हाँ मैं यहाँ! अपनी लाल आँखें तरेरते हुए . . . नहीं तो कहाँ जाता . . . मुझे . . . मुझे पैसों की आवश्यकता है।” 

“वो तुम्हें नहीं मिलेंगे।” 

ऐसा सुनते ही तरुण ने उसके घर पर तोड़-फोड़ करना शुरू कर दिया . . . आज वह नियंत्रण से बाहर था . . . पिंकी के पापा भी आ गए थे। उन्होंने उसकी एवं घर की हालत देखी तो सकते में आ गए और तरुण को एक थप्पड़ रसीद कर दिया। वह ज़मीन पर मुँह के बल गिर गया। 

“भय्यू!” नीलिमा के मुँह से चीख निकल पड़ी . . . भय्यू उठ आँख खोल . . . पर भय्यू नशे में इतना धुत्त्त था कि वह अपने होश खो बैठा और बेहोश हो गया। 

नीलिमा ने हाथ जोड़कर अपने पति से कहा, “डॉक्टर को बुलाइये ना कहीं उसकी हालत न बिगड़ जाए . . .” 

पिंकी के पापा ने डॉक्टर साहब को बुलाया और उन्होंने उसे नशा मुक्ति केंद्र भेजने की हिदायत दी। नीलिमा ने उसे नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती कर दिया और कोर्ट का अंतिम फ़ैसला भी आ गया था। पुरखों की जायदाद के बराबर दो हिस्से हुए, एक नीलिमा का और दूसरा तरुण का। यह फ़ैसला भी कि तरुण के ठीक होने तक उसके जायदाद की पॉवर ऑफ़ एटॉर्नी नीलिमा के पास रहेगी। नीलिमा केस तो जीत गई थी लेकिन कभी सपने में भी नहीं सोचा था उसने कि जिस भाई को जान से भी ज़्यादा चाहती थी उसके ख़िलाफ़ कोर्ट में खड़ी होगी कभी . . . 

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