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समकालीन कविता की युगीन चेतना और संवेदनशीलता के पारस स्पर्श से झिलमिलाता आकाश: कराहता मुक्तिपथ

पुस्तक: कराहता मुक्तिपथ (काव्य संग्रह)
लेखक: गिरीश चंद्र पांडे ‘प्रतीक’
प्रकाशक: न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई  दिल्ली
संस्करण: 2023
मूल्य: ₹250/-
पृष्ठ: 152

समकालीन कविता को समझने के लिए यह जानना अति आवश्यक है कि यह साम्प्रतिक के अर्थ में नहीं है बल्कि इसका फलक अत्यंत विस्तृत है। आलोचकों द्वारा सन्‌ 1960-70 के बाद की कविता को समकालीन कविता के नाम से अभिहित किया गया है। यह कविता एक ढंग की नहीं बल्कि इसमें कई विचार सरणियाँ काम करती हैं जो समकालीन समय की प्रतिध्वनियों की गूँज है। यह कविता अपने व्याकुल समाज की गवाही देती है, उसका दुःख समाज का दुःख है, उसके सवाल संस्कृति व मूल्यों में आए परिवर्तन को लेकर हैं; क्योंकि कविता समाज से जुड़ी होती है और जब समाज में संकट गहरा रहा हो तो कविता उससे विमुख कैसे रह सकती है। यह कविता उन संकटों की पहचान कराते हुए उनके प्रति सजग करती है। हिंदी के प्रख्यात आलोचक मैनेजर पांडेय के अनुसार: “केवल नया ही समकालीन नहीं होता, बल्कि जो सार्थक है वही समकालीन है।” 

‘कराहता मुक्तिपथ’ लोक जीवन और संघर्ष को समर्पित राष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिका के मुख्य संपादक गिरीश चंद्र पांडे ‘प्रतीक’ का दूसरा कविता संग्रह है; जो मई 2023 में न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इसमें कुल 90 कविताएँ संगृहीत हैं। आकार की दृष्टि से कुछ कविताएँ लंबी तथा कुछ छोटे कलेवर की हैं। कवि की काव्य धरती का फलक लोक है जिससे जुड़कर वह जन और अखिल विश्व से जुड़ता है। डर, साज़िश, पीढ़ियों का अंतराल, पलायन, विस्थापन का डर, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विसंगतियाँ, स्त्री, बच्चे, धर्म, जाति, संप्रदाय इत्यादि विषयों को आलोच्य संग्रह में अभिव्यक्ति मिली है। संग्रह पर दृष्टिपात करने से पूर्व कवि महेश पुनेठा के विचार दृष्टव्य हैं: “गिरीश कथ्य, शिल्प और भाषा के स्तर पर जिस तरह लोक सम्वेदना को अभिव्यंजित करते हैं वैसा केवल एक लोकधर्मी कवि ही कर सकता है जिसे अपनी धरती और अपने लोगों से गहरा लगाव हो . . .” (पृ. 6) महेश पुनेठा के ये विचार कविताओं के केवल एक छोटे से पक्ष को ही उजागर करते हैं जबकि ‘प्रतीक’ की कविताओं का फलक अत्यंत विस्तृत है, जिसे हम समकालीन कविता की संवेदना और पहचान का आकाश भी कह सकते हैं। समकालीन कविता की मुख्य विशेषता पर दृष्टिपात करें तो वह है जन संघर्ष की यथार्थ छवि। जन संघर्ष अर्थात्‌ जनता का संघर्ष जिसमें वंचित लोग व उनके संघर्ष शामिल हैं। जन संघर्ष को आवाज़ देती कविताओं में ‘अबकी बार’, ‘नदी’, ‘है ना’, ‘पथ-लतपथ’, ‘विकास आ रहा है या’, ‘हो गई कुर्की’, ‘क्या ये है बचपन’, ‘भीड़ का हिस्सा हूँ’, ‘एक दो’, ‘जड़ें’, ‘एक और विस्थापन होगा’, ‘उड़ते कबूतर’, ‘मेरी उँगलियाँ और क़लम’, ‘बसंत कब आया और कब गया’, ‘सनद रहे’, ‘एक दिन’, ‘गुप्प अंधेरा’, ‘बर्फ़ से दबे हरे सपने’, और ‘चिल्ड्रंस डे’ मुख्य हैं। संग्रह की पहली कविता ‘अबकी बार’ में ‘प्रतीक’ ने जन संघर्षों के कई रूपों को प्रस्तुत किया है जिसमें मुख्य है—आर्थिक स्थिति और उससे उत्पन्न निराशा। धरती पुत्र कहे जाने वाले किसान की आशा और निराशा की ओर संकेत करते हुए ‘प्रतीक’ कहते हैं:

“बादल आया था शाम को 
हवा के झोंके को सह न सका 
और उड़ गया 
परिंदों के मानिंद 
एक आशा जो जगी थी 
वो फिर . . . ” (पृ. 10) 

‘नदी’ कविता में पहाड़ की स्त्री के संघर्ष को आवाज़ देते हुए कहते हैं:

“जेठ की झूर दोपहरी में 
भरने गई थी नानी 
नंगे पाँव 
गंगलोड़ों से चढ़ते-उतरते 
अपने नसीब को कोसते 

भर लाई थी पानी” (पृ. 13)  

‘प्रतीक’ की कविताओं में जीवन संघर्ष तो है ही इसके अतिरिक्त उनकी कविता का एक महत्त्वपूर्ण एवं विशेष स्वर है साहस का, जिसे संग्रह की अधिकांश कविताओं में देखा जा सकता है। जन-संघर्ष की यथार्थ छवि और विकास पथ की सच्चाई का आकलन करते हुए कवि कहते हैं:

“कुछ आक्रोशित हो 
आत्महत्या कर चुके 
कुछ दोबारा साँस लेने की सोच रहे हैं यही है प्रगति पथ 
यही है सत्पथ 
लतपथ लतपथ लतपथ” (पृ. 28) 

‘विकास आ रहा है या’ कविता में ‘प्रतीक’ चिकित्सा व्यवस्था एवं विकास की पोल खोलते हुए नज़र आते हैं तो ‘हो गयी कुर्की’ में किसान के दर्द को उजागर करते हुए। जो किसान धरती का सीना चीरकर अन्न उगाता है, चराचर प्राणियों के पेट की आग बुझाता है, वह किसी भगवान से कम नहीं होता। उसी की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण करते हुए कवि कहते हैं:

“खेतों में खड़ी फ़सल 
न जाने कब धराशाई हो गई 
और कब बैंकों के नोटिस 
चस्पा हो गए घर के दरवाज़ों पर क्योंकि पढ़ना नहीं जानता 
दरवाज़ा 
× × ×
देखा सामने नीम के पेड़ से 
लटकी थी एक लाश 
अब उस लाश को जलाएँ या चूल्हा” (पृ. 31) 

‘क्या ये है बचपन’ कविता में कूड़ा बीनते बचपन की व्यथा-कथा है। कवि का चिंतन मार्मिक होने के साथ-साथ व्यवस्था पर एक आक्षेप है जो समय की मार का अंकन करता है:

“कूड़ा बीन रहा था 
कुछ अद्धे पव्वों 
और बोतलों से बूँद-बूँद इकट्ठा कर रहा था 
× × × 
अंकल मुझे किताबों से क्या करना 
पेट पहले 
फिर परिवार 
मन करता है 
मैं भी जाऊँ स्कूल 
पर अंकल . . . ” (पृ. 39) 

‘भीड़ का हिस्सा हूँ’ कविता में कवि भ्रष्टाचार की ओर संकेत करते हैं ‌। आर्थिक विपन्नता और तद्जनित जीवनानुभवों को तीखी व विचलित कर देने वाली भाषा से बड़ी ही सजगतापूर्वक आवाज़ देते हैं, जिसमें आज के क्रूर तथा निर्मम व्यवस्था से आद्योपांत जूझते हुए आदमी की तस्वीर है; जो विपरीत परिस्थितियों में भी अटूट साहस के साथ तन ढकने को प्रयासरत है:

“नहीं है रोटी 
न लत्ता कपड़ा 
देह है 
पेट की आग भी है 
जो मुझे 
मेरे जन्म के साथ मिली है 
मेरा क्या क़ुसूर 
नहीं ना 
तो फिर पेट की आग बुझाने 
और तन को ढकने का पूरा अधिकार है मुझे” (पृ. 41) 

‘एक और विस्थापन होगा’ कविता में कवि ने विस्थापन के दर्द को उजागर करते हुए संस्कृति, जड़ें, आस्था, संघर्ष की गाथा, गाँव, छूटती ज़मीनें, छूटती यादों को मुख्य विषय बनाया है। आम जनता के दर्द को उजागर करते हुए ‘प्रतीक’ कहते हैं:

“हटा दिए जाएँगे गाँव
और उनमें रह रहे लोग 
डूब जाएँगे 
खेत खलिहान 
हिला दी जाएँगी चट्टानें 
खोल दी जाएँगी दुकानें 
पत्थर तोड़ेंगे किसान 
नौकरी का होगा लॉलीपॉप 
फिर भी ख़ुश क्यों हो 
पंचेश्वरवासियों . . . ” (पृ. 63) 

‘उड़ते कबूतर’ में कवि राजा और प्रजा के माध्यम से आम जनता के प्रति सत्ताधीशों की असल सोच को उजागर करते हुए कहते हैं कि:

“तुम्हें पंख नहीं लगने चाहिए 
ये कबूतर जो उड़ रहे हैं
ये राजघराने के हैं
ग़लती मत करना
कबूतर बनने की
पर कतर दिए जाएँगे . . . ” (पृ. 66) 

उपर्युक्त पंक्तियाँ भोजपुरी कवि गोरखपुरी की प्रसिद्ध कविता ‘मैना’ की याद दिलाती हैं, जिसका भाव इन पंक्तियों से पर्याप्त साम्य रखता है। जिसे भोजपुर में लोकगीत के रूप में भी गाया जाता है। लोक से अप्रतिम प्रेम की बानगी ‘मेरी उँगलियों और क़लम’ में देखी जा सकती है जिसमें जीवन संघर्ष की तपिश है:

“मेरा आसमान मेरी 
उँगलियों के बीच 
× × ×
मेरा जीवन 
संघर्षों की चट्टानें हैं 
मेरी आशा 
पहाड़ 
गाड़ गधेरे 
जंगल, नदी 
और बन घास है 
मेरी निराशा 
आँगन की घास 
बंद दरवाज़े 
झूलते ताले 
धँसती ज़मीन 
छिटकती छत है ” (पृ. 67) 

‘बसंत कब आया और कब गया’ जीवन संघर्ष का ऐसा बयान है जिसमें कवि को बासंती बयार और खिले फूलों व कोयलों की मनुहार से भी डर लगता है:

“उसका बसंत 
ज़्यादा रोमांटिक और रूमानी था
पीले रंगों में रंग गया था 
और मेरा 
ख़ून की कमी से जूझ रहा था 
× × ×
सामने पतझड़ 
नई कोंपलों से 
डर लगता है . . . ” (पृ. 71) 

वास्तव में उपर्युक्त पंक्तियाँ शब्द चमत्कारों से मुक्त जीवन संघर्षों को सही संदर्भ में संदर्भित करती हैं। कविता में व्यक्त भाव बहुत कुछ कह जाने वाले मौन की तरह मुखर हैं। मानवीय संवेदनाओं, विवशताओं व नियति को अस्वीकारती मन: स्थितियों के आक्रोश का चित्रण है। कवि कहते हैं:

“मुझे नहीं सुनना फाग
कौवों का 
नहीं सुनना रुदन उद्बिलावों का 
नहीं खेलनी होरी 
ख़ून की 
फिर भी 
बसंत तो मेरा भी आया ही है . . . ” (पृ. 71) 

‘गुप्प अंधेरा’ कविता में कवि आज के परिवेश के प्रति संघर्षरत हैं। इस कविता में वे गहन अंधकार के सन्नाटे को तोड़ने हेतु तत्पर एक कतरा रोशनी की बात करते हुए संघर्षरत जीवन के प्रति संशय दृष्टि भी रखते हैं, जो स्वाभाविक है:

“क्या उन कोठरियों से 
निकल पाऊँगा 
जो घुप्प अँधेरे से घिरी हैं 
एक कतरा रोशनी 
छटपटा रही है 
अँधेरे के सन्नाटे को तोड़ने के लिए” (पृ. 84) 

‘बर्फ़ से दबे हरे सपने’ कविता में कवि को बर्फ़ की सफ़ेद चादर में उजास और सुनहली प्रकृति के दर्शन नहीं होते बल्कि उनकी दृष्टि तो बर्फ़ के नीचे दबी उस हरी-हरी दुबिया घास की ओर जाती है जो अपने अस्तित्व हेतु संघर्षरत है और बर्फ़ के पिघलने का इंतज़ार कर रही है। ये कविता ‘निराला’ की ‘अबे . . . सुन बे गुलाब’ सा आस्वाद देती है:

“बर्फ़ की सफ़ेद चादर के नीचे दबे हैं मेरे हरे सपने 
तुम आए और 
दूर से देखा
कुछ गोले बनाए
और लुढ़का दिए
हँस लिए 
खेल लिए 
और चल दिए 
मुझे तो बर्फ़ के पिघलने का इंतज़ार करना होगा” (पृ. 86) 

‘चिल्ड्रन्स डे’ के माध्यम से कवि बंद कमरों में सिसकते व दुबकते जीवन की व्यथा का मार्मिक चित्रण करते हैं। यह एक गंभीर कविता है जो अंतर्मन को झिझोड़ते हुए सोचने को विवश करती है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में और यंत्रवत् जीवन की आपाधापी में वाक़ई बचपन खोता जा रहा है:

“मेरे हिस्से के खिलौने 
लौटा दो
मुझे खेलना है 
लौटा सकते हो 
चिल्ड्रन डे 
बचपन सुबक रहा है 
कोठरियों में दुबक रहा है 
क्या लौटा सकते हो 
मुस्कुराहट 
अगर हाँ तो 
ज़रूर मनाओ . . . ” (पृ. 93) 

‘प्रतीक’ की कविताएँ जहाँ परिवेशगत विसंगतियों का यथार्थ प्रस्तुत करती हैं वहीं उनके विरुद्ध न केवल संघर्ष हेतु आह्वानित करती हैं अपितु गतिशील ऊर्जा के साथ संघर्षरत मानव में साहस और उम्मीद का संचार भी करती हैं। ‘मत कर दिल हल्का’ कविता में कवि संघर्ष की तपती रेत में ही निखरने की बात करते हुए कहते हैं:

“ये वक़्त भी तेरा ही है 
जिसे आज तू अपना नहीं पा रहा होगा यही वक़्त है 
जो तुझे और मज़बूत बनाएगा 
ये अमावस्या 
पूर्णिमा के आने का संकेत है” (पृ. 36) 

सकारात्मकता की यह डोर हमें आशान्वित करने के साथ-साथ, विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए, जीवन को नई दृष्टि से देखने की प्रेरणा भी देती है। ‘प्रतीक’ के लेखन में जीवन की एक अद्भुत धड़कन है। वे कहते हैं:

“बस जुट जा और मज़बूती के साथ
धार दे अपने
वर्तमान को
भविष्य तेरा होगा
ख़ुद आएगा तेरा वरण करने
बस तू वर्तमान को वरण कर” (पृ. 36) 

जन सामान्य के संघर्षशील जीवन में आत्मविश्वास भरने की आस्था का यह स्वर उम्मीद की रोशनी जगाता है। व्यक्ति कदाचित् हारा भी हुआ हो तो बिखरने को तैयार नहीं होता, ख़ुद को समेटते हुए पुनः-पुनः उठ खड़ा होता है‌, जो समकालीन कविता की सबसे बड़ी ख़ासियत है। कवि के अंदर जहाँ निर्मल निर्माण की आकांक्षा प्रबल दिखती है वहीं उनके चिंतन में अंतिम आदमी की चिंता भी है। ‘भीड़ का हिस्सा हूँ’ कविता में वे व्यवस्था और भ्रष्टाचार की ओर संकेत करते हुए उम्मीद की डोर थामे रखने की बात करते हैं:

“क्योंकि मेरे पास नहीं हैं 
गड्डियां फ़ुज़ूल की 
फिर भी खड़ा हूँ 
एक आस के साथ 
कोई तो होगा 
पैसों के बाग़ों के बीच 
आम लगाने वाला माली 
कभी तो आएगा मेरा भी वक़्त 
जब होगा मेरे हाथों में 
काम” (पृ. 40) 

‘धूप और छांव’ में कवि को उम्मीद है कि एक दिन समानता का सूरज ज़रूर उगेगा और सबको अपनी गुनगुनी धूप का नर्म मुलायम एहसास देगा:

“कल सुबह जो धूप आएगी 
उसका कोई धर्म जाति और संप्रदाय नहीं होगा 
उसे धूप की सीमा 
उस छाया तक होगी 
जो कभी नहीं पूछती 
तुम्हारा धर्म जाति और संप्रदाय 
धूप और छाया की लकीरें 
सबके लिए समान हैं . . . ” (पृ. 61) 

‘छाया और धूप’ के प्रतीकों से बिम्बित समानता और सद्भावनाओं के उम्मीद का यह स्वर अद्भुत है। 

कवि के अंदर आत्मालोचन की प्रवृत्ति के भी दर्शन होते हैं। ‘विकास आ रहा है या’ कविता में विकास के खोखले नारों से व्यथित होकर उनका आत्मालोचन समष्टिगत हो जाता है। ‘प्रतीक’ कहते हैं:

“पर विकास कम विनाश ज़्यादा असंतुलित भौतिक विकास 
नहीं हुआ हमारी नैतिकता 
और हमारे विचारों का विकास 
हम ज़्यादा संकीर्ण हुए हैं 
पहले से अब” (पृ. 30) 

आत्मालोचन की यह प्रवृत्ति समकालीन कवियों में विजय देवनारायण शाही, अरुण कमल, केदारनाथ अग्रवाल इत्यादि कवियों में दिखाई देती है। इन कवियों ने जो नए प्रतिमान गड़े उनके स्रोत वंचित जनता में हैं और उनके दुखों से व्यथित होकर वे आत्मालोचन भी करते हैं। ‘कैमरे’ कविता में ‘प्रतीक’ कहते हैं:

“मैं कैसा पहाड़ी 
मैं कैसे कह सकता हूँ कि 
मैं पहाड़ी हूँ
मैंने कभी पहाड़ को सुना ही नहीं जाना ही नहीं 
उन पाहनों के दर्द को समझा ही नहीं जो सँभाले हुए हैं 
अपने कंधों पर हम सबको 
× × ×
उन दरकती चट्टानों के दर्द को 
सुनने और देखने का जज़्बा 
मुझमें नहीं तो 
और किसमें होगा . . . ” (पृ. 55) 

समकालीन कविता की एक और विशेषता के रूप में आलोच्य संग्रह में राजनीतिक संदर्भ विभिन्न रूपों में देखे जा सकते हैं। षड्यंत्र, शह और मात के खेल, जोड़ने-तोड़ने की प्रवृत्ति का यथार्थ अंकन कवि ने ‘गाँव के पंख’ कविता में किया है:

“गाँव की चौपालें 
बदलने लगी हैं 
राजनीति का ज़हर असर कर रहा है अब फसक हो रहे हैं 
सह और मात के 
तोड़ने और जोड़ने के . . . ” (पृ. 19) 

वास्तव में त्वरित गति से बदल रहे समय की नब्ज़ पकड़ना कोई आसान काम नहीं, उससे भी कठिन है विसंगतियों को अभिव्यक्त करने हेतु एक बदली हुई भाषा और रचना का नया विधान पाना। जो ऐसा कर पाने में समर्थ होते हैं उनकी कविता सोच और स्मृति को दर्ज करने का आवश्यक और अनिवार्य माध्यम बन जाती है। कवि राजनेता और जनता के बीच की दूरी की ओर संकेत करते हुए राजनेताओं पर व्यंग्य करते हैं:

“तेरे और मेरे बीच की 
दूरियाँ अनंत हैं 
× × ×
संपूर्ण क्षितिज में ज़हर घुलता गया
चहुँ और तीर बरछी कटार 
से टकराते शब्द 
सफ़ेदपोश मगरमच्छ 
मदमस्त घड़ियाल” (पृ. 27) 

कवि व्यवस्था से खिन्न हैं। उनका यह आक्रोश व्यवस्थाओं की ही उपज है। राजनेताओं के दोगले चरित्र की ओर संकेत करते हुए वे कहते हैं:

“अरे!! तुम्हें जश्न के ढोल ख़ूब सुनाई देते हैं 
कभी मौन हो चुके 
दर्द के क्रंदन को सुनो 
जो फाड़ देगा कान के पर्दे
× × × 
तुम्हारी पैदा की गई काल्पनिक 
आँधियों से 
बहुत पलट लिए हैं पन्ने 
रच दिए हैं इतिहास 
नाप लिए हैं भूगोल 
ज़रा समाजशास्त्र को भी तो देख लो जिस अर्थ की बात करते हो
क्या वह सार्थक है 
निरर्थक हो चुके मौन की व्यथा को सुन लो” (पृ. 34) 

‘प्रतीक’ के ये शब्द चमत्कार से इतर जीवन-संदर्भों को स्वर देते हैं। कविता उस मौन की भाँति मुखर है जो बिन बोले ही बहुत कुछ कहने का माद्दा रखती है। मानवीय संवेदनाएँ, व्यवस्थाएँ एवं मन: स्थितियों के आक्रोश का त्रिकोण इस कविता में मुखरित हुआ है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा की जा रही जातीय राजनीति और उसकी भयावहता की ओर संकेत करते हुए कवि कहते हैं:

“झंडे लेकर निकल पड़ी हैं जातियाँ लेकर रहेंगे 
अपना हक़ हुकूक 
अब नहीं दबंगे . . . 
और बाँटो रेवड़ियाँ 
एक दिन तुम्हें ही बाँटकर खा जाएँगी जातियाँ . . . ” (पृ. 37) 

कवि को डर है कि हमारे जीवन में धीरे-धीरे व्याप्त होता यह जाति रूपी विष कहीं हमारे देश की जड़ें हिलाकर उसे ही न बाँट दे:

“कब तक बाँटोगे 
कहीं ये देश ही ना बाँट दे ये जातियाँ . . . ” (पृ. 38) 

कवि मानवता को सर्वोपरि मानते हुए जिस जाति की आवश्यकता महसूस करते हैं, वह है मानव जाति। वे जाति पर राजनीति करने वाले नेताओं से पूछते हैं:

“क्या नहीं हो सकता यह देश 
जातियों के विषय से अलग 
जहाँ हो केवल और केवल 
मानवता” (पृ. 38) 

‘महा मौन’ कविता में कवि सत्ताधीशों के यथार्थ को उजागर करते हुए उन पर व्यंग्य्य करते हुए कहते हैं:

“नाम पा गए
जिनका नाम न था 
× × ×
लड़ने का हुनर अब भूल गए हैं इसलिए व्यस्त हैं 
जातियों संप्रदायों को लड़ाने में” (पृ. 60) 

कवि सत्तासीन व्यक्ति के चरित्र से भली-भाँति परिचित हैं। सत्ता में आसीन व्यक्ति जो दिखाना चाहता है वही आम जनता देखती है; क्योंकि उन्हें पता है कि सीधी-सादी, भोली-भाली जनता को अपनी अफीम सी बातों की डोज़ कैसे देनी है:

“उल्टी तस्वीर
सुल्टी दिखा 
और समझा पा रहे हो 
अब आदी हो गई है जनता 
अब डोज़ बढ़ा दो 
कहीं नशा उतर न जाए 
बातों का” (पृ. 79) 

‘एक दिन’ कविता में कवि वर्तमान व्यवस्था की असलता और उसके कुचक्र को उजागर करते हुए कहते हैं:

“कुचल दिए जाओगे 
अगर हिनहिनाए तो 
बोलने वाले घोड़े 
दौड़ा दिए जाएँगे 
लगाम कस दी जाएगी 
चाबुक चला दिया जाएगा” (पृ. 80) 

उपर्युक्त पंक्तियाँ समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर राजीव जोशी की कविता से भावसाम्य रखती हैं। राजीव जोशी कहते हैं:

“कटघरे में खड़े कर दिए जाएँगे 
जो विरोध में बोलेंगे
जो सच-सच बोलेंगे
मारे जाएँगे . . . ” 

‘एक और गणतंत्र दिवस’ में कवि लोकतंत्र की असल परतें उघाड़ते हुए कहते हैं कि गणतंत्र आमजन के लिए नहीं है। इस कविता में ‘प्रतीक’ एक उधेड़बुन सी बुनते नज़र आते हैं जो आम आदमी का एक यथार्थ भी है:

“मुझे झंडे पकड़ा दिए गए हैं 
आज़ाद भारत के 
और मुझे ग़ुलाम बना दिया गया है मानसिकता से 
× × ×
बायनामों से 
ख़रीद लिया जाता हूँ 
पैमानों से 
मुझे वोट देने का हक़ मिला है 
पर बोलना तो गिला है 
क्या मैं सिस्टम का हिस्सा हूँ 
या फिर 
केवल एक क़िस्सा हूँ” (पृ. 85) 

‘बाढ़ और उनके घर का हिमालय’ में कवि सामाजिक एवं राजनीतिक विसंगतियों को उजागर करते हुए भ्रष्टाचार, रिश्वतख़ोरी से विकास और सत्ता की पोल खोलते हुए सत्ता के ठेकेदारों को फटकार लगाते नज़र आते हैं:

“हिम खंडों से पिघल कर जो नदी
तुम्हारे आँगन को 
सींचती और पोषित करती है 
उसी को तुमने 
अहिल्या बना दिया 
और राम बनने का ढोंग कर रहे हो
कोसना बंद करो हिमालय को
अपने अंदर के रावण रूपी उपभोक्ता को कोसो
जिसने पिघला दिए हैं
ढहा दिए हैं
संघर्ष के हिमालय . . . ” (पृ. 125) 

‘प्रतीक’ के यहाँ राजनीतिक संदर्भ और पक्षधरता की यह प्रवृत्ति व्यापक रूप से देखी जा सकती है। उनकी पक्षधरता जनता के प्रति है, वंचित लोगों के प्रति है। ‘अंतर’ कविता अपने कलेवर में बहुत छोटी सी है, मात्र चार लाइनों की; जिसमें कोलाहल और हलाहल शब्दों के प्रयोग से अमीर और ग़रीब के जीवन के अंतर को रेखांकित किया गया है:

“कितना कोलाहल है
 ग़रीबों की बस्ती में 
कितना हलाहल है
अमीरों की मस्ती में।” (पृ. 104) 

‘प्रतीक’ ने उपर्युक्त पंक्तियों में समाज की उस विसंगति को उजागर किया है जिसमें एक ओर तो ग़रीबों की वह बस्ती है जहाँ वे जीवन की छोटी-छोटी ज़रूरतों को जुटाने की उहापोह के कारण अपने मन-मस्तिष्क के कोलाहल से उबर ही नहीं पाते; वहीं दूसरी ओर अमीरों का वह मस्ती भरा जीवन है जिनके हृदय में ग़रीबों के लिए हलाहल के सिवाय कुछ नहीं! शब्दगत चमत्कार से कवि ने बिहारी की भाँति गागर में सागर भरकर हमारे समाज के यथार्थ को उजागर किया है। ‘तुम हार नहीं सकते’ कविता में कवि अपनी परिस्थितियों से हार मानने और साहस रखने की बात करते हुए कहते हैं:

“भूख को भूख न कह 
खेत बना लेना 
प्यास को प्यास न कह 
कुआँ खोदने का साहस रखना ही तो हमारे सपनों को ज़िन्दा रखे हुए है” (पृ. 144) 

‘बाज़ार में एक दिन बेड़ू भी आएगा कविता के माध्यम से कवि वंचित विमर्श की बात करते हैं। उनके चिंतन के केंद्र में आम आदमी है। बेड़ू यहाँ पर वंचित वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है उसे आवाज़ देते हुए ‘प्रतीक’ कहते हैं:

“यार बेड़ू
तुम इतने हेय क्यों बन गए 
बारू मास पकते रहते हो 
और झरते रहते हो 
गीतों में सुनाई देते हो 
यार बेड़ू तुम गूँगे क्यों बन गए . . . ” (पृ. 145) 

 ‘प्रतीक’ की कविताओं में स्थानीयता एवं वैश्विकता के प्रति सजकता के व्यापक दर्शन होते हैं। लोकल और ग्लोबल दोनों का एक साथ दिखना समकालीनता की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। उनके यहाँ स्थानीयता एवं वैश्विकता की आवाज़ाही को एक साथ देखा जा सकता है:

“सूखे की चपेट में हैं रिश्ते 
अकाल है भावों का 
बहुत बदल गया है गाँव 
शहर को देखकर 
बाज़ार को घर ले आया है गाँव 
ख़ुद बिकने को तैयार बैठा है 
हर हाल में 
हरी घास भी 
ख़रीद लाए हैं 
शहर वाले . . . ” (पृ. 19) 

स्थानीयता एवं वैश्विकता की आवाज़ाही के तनाव ‘प्रतीक’ को विशेष रूप से आंदोलित करते हैं। अपने समय के अर्थतंत्र को प्रतिबिंबित करती उनकी कविताएँ, रिश्तों के अंतर्गत विश्व बाज़ार के दबाव को महसूसती हैं। ‘है ना’, ‘गाँव के पंख’, ‘विकास आ रहा है या’, ‘बदल गया’, ‘बदलाव’, ‘जड़ें’, ‘यह मैं नहीं कह रहा’, ‘ताड़ रहा है’, ‘शब्द उतर आए सड़कों पर’, ‘बहरी फाइलें’, ‘आमा एक कविता थी’, ‘कराहता मुक्तिपथ’, ‘एक पत्थर जो पड़ाव है’ इत्यादि कविताओं में स्थानीय एवं वैश्विकता के प्रति सजगता के दर्शन होते हैं। वैश्वीकरण के कारण अपनी पहचान खो रहे गाँवों की स्थिति और हमारे जीवन में हो रहे बदलाव की ओर संकेत करते हुए ‘प्रतीक’ लोक मानस की भूमि पर कविता की संवेदना की बुनियाद खड़ी करते हैं:

“हाथ का हटिन्डा 
वो कुल्हाड़ी का बिंडा . . . 
वो रामी वो बौराणी 
टांडी भांडी 
सब स्तब्ध है 
खर्क की धुरानी में ध्वांर खा रही है। इन नरम हाथों को 
इनकी ज़रूरत अब कहाँ . . . ” (पृ. 44) 

कवि अपने समय का द्रष्टा होता है। आने वाले वर्षों में होने वाली त्रासदी की भनक उसे लग जाती है। ‘यह मैं नहीं कह रहा’ कविता में कवि सन्‌ 2050 की आगत परिस्थितियों को भाँपते हुए परिवेश के प्रति सजग कर रहे हैं। कवि की भविष्यवाणी है कि:

“प्यासे हैं कुँए 
प्यासी हैं नदियाँ 
ये 2050 बोल रहा है 
मैं नहीं
× × ×
देखो ना कितनी स्मार्ट हो चले हैं 
ये मैं नहीं 
2050 बोल रहा है 
हो रहा है युद्ध 
आकाश और ज़मीन के बीच 
मशीन और मानव के बीच 
सूक्ष्म और स्थूल के बीच 
× × ×
पश्चिम में चीख रहे हैं लोग और भोग यह मैं नहीं 
2050 बोल रहा है . . . ” (पृ. 57) 

‘एक और विस्थापन होगा’ कविता में संस्कृति, जड़ें, आस्था, संघर्ष की गाथा, गाँव, छूटती ज़मीनें, छूटती यादें इत्यादि को आवाज़ देते हुए विकास की अंधी दौड़ में शामिल होने वाली सत्ता की अंधी नीतियों के प्रति आम जनता को सजग करते हुए कवि कहते हैं:

“रुकी हुई नदी
इतनी शांत और शालीन 
नहीं होगी 
आँगन में समुद्र होगा
तुम बड़े-बड़े शूशों को
आमंत्रित कर रहे हो 
तैयार हो 
उसके मुँह में जाने को 
अभी भी वक़्त है
अपनी नदी और पहाड़ को 
बचा सको तो बचा लो” (पृ. 64-65) 

‘ताड़ रहा है’ कविता में एक ओर तो उत्तरोत्तर प्रगति कर रहे लोगों को देख जलने वाले लोगों और उनकी सोच का पर्दाफ़ाश हुआ है और वहीं अंतिम पंक्तियों में बिंब एवं प्रतीकों के माध्यम से शोषक और शोषित वर्ग को वर्गीकृत कर उनका यथार्थ चित्रण किया गया है:

“ . . . सोच
 नोंच नोंच नोंच 
नंगों को नोंचना आसान होता है 
नाग तो फुफकार रहा है 
देखो भाई . . . ” (पृ. 82) 

‘हितेन सहितम् साहित्यम्’ के अनुसार ‘प्रतीक’ अपने कवि धर्म के प्रति सजग हैं। वे शब्द को उसके अर्थ के साथ बचाना चाहते हैं। ‘शब्द उतर आए सड़कों पर’ कविता में वे आज के समय का चरित्रांकन मारक एवं गंभीर व्यंग्य्य के साथ करते हैं:

“किताबों में पड़े शब्द 
उतर आए हैं सड़कों पर 
चौराहों पर 
अब नहीं भटकेंगी लाठियाँ 
अब नहीं सोयेगा 
कोई भी बच्चा भूखा 
शब्द अब भारी नहीं होंगे 
कूड़े के ढेर से लदे कट्टे 
हल्के हो जायेंगे 
नैतिक शिक्षा बिक रही है बल बाज़ार में” (पृ. 94) 

कवि अपनी लेखनधर्मिता के प्रति सजग हैं। एक ओर वह हाशिए पर पड़े लोगों के प्रति समर्पित हैं तो दूसरी ओर व्यवस्थागत विसंगतियों के प्रति संघर्षरत। वे उनके विरुद्ध भी संघर्षरत हैं जो रेत के महापुल बनाते हैं। ‘नहीं कर सकता’ कविता में ‘प्रतीक’ मात्र दो लाइनों में ही बहुत गंभीर बात और लेखन के सार को रख देते हैं:

“पहाड़ पर रहता हूँ 
रेत कैसे लिखूँ” (पृ. 95) 

‘प्रतीक’ शब्दों की सार्थकता के प्रति सजग हैं। शब्दों से खेलकर कीर्ति, सम्मान एवं यश प्राप्ति हेतु जोड़-तोड़ में लगे लोग प्रायः भूल जाते हैं कि एक दिन उनके द्वारा बोले गए शब्द ही उन्हें रौंदेंगे:

“शब्दों से खेलने वाले लोग 
ज़्यादा ज़िन्दा नहीं रह पाते 
यही शब्द रौंदेंगे 
एक दिन 
सनद रहे” (पृ. 78) 

क्योंकि कवि महसूसते हैं कि शब्द को उसके अर्थ के साथ न बचाया जाए तो मंचों से बोले गए यही शब्द उन्हें नंगा भी कर सकते हैं:

“तुम लिखते हो ना 
तो समझ लो तुम नज़रों में हो 
और मौक़ा मिलते ही 
तुमको नंगा किया जा सकता है चौराहे पर
× ‌ × ×
हाँ शब्द बेवफ़ा नहीं होते 
जो यहाँ भी डाल ही होते हैं आपके भले ही 
आप शब्दों को छोड़ दें 
या वापस ले लें
शब्द नहीं बदलते 
बदल जाते हैं 
आप और हम” (पृ. 124) 

‘बहरी फाइलें’ कविता में धार्मिक संदर्भों को उजागर करते हुए विस्थापित समाज की पीड़ा और सामाजिक विसंगतियों पर करारी चोट की गई है। परोक्ष रूप से मंदिरों पर चढ़ाई जाने वाली सामग्री पर व्यंग्य्य करते हुए कवि किसी ज़रूरतमंद की मदद करने की बात करते हैं। ये कवि के अपने जीवन मूल्य हैं जो सार्थक होने के साथ-साथ मानवता को बचाने हेतु ज़रूरी भी हैं। ‘प्रतीक’ कहते हैं:

“प्रशंसा गीत गा गा कर 
पत्थर को घी दूध पिलाकर 
नालियाँ ही बदबू मारेंगी 
किसी भूखे प्यासे को क्या कभी दोगे पेट भर खाना 
उसका ख़ून और पसीना काम आएगा . . . ” (पृ. 111) 

हमारी आस्थाएँ, संवेदनाएँ, जीवनराग, आत्मीयता, मानवता की नमी सब दुष्चक्रों के वशीभूत हैं। जिससे भय की स्थिति निरंतर बनी सी रहती है। ‘38 . . .’ कविता में कवि ने पिघलते मोम के प्रतीक का सहारा लेकर इस सच को व्यक्त किया है, जो कवि की अपनी विशेषता है:

“हो सकता है 
मोम पिघल जाए 
ज़ीरो डिग्री में 
क्या लोहा ढल सकता है 
उसी डिग्री में” (पृ. 113) 

‘आमा एक कविता थी’ किसी के चले जाने के बाद की यादों का रीतापन है। प्रतीक की कविताएँ मर्मस्पर्शी संवेदनाओं की तरोताज़ा अनुभूतियाँ हैं जो अपने परिवेश के ताने-बानों से बुनी गई हैं जिन्हें एक-दूसरे से विलग नहीं किया जा सकता:

“घर का रीतापन
अँधेरे कोनों का सूनापन
उदास देहली
बाट जोहता चाक का फाटक
× × ‌×
माँगती रही
अपने परिवार के लिए
समाज के लिए
× × ×
आदमी बोना किसे कहते हैं
ये तूने ही तो सिखाया
शायद घर की चीज़ें
हमसे कहीं ज़्यादा तुझे याद कर रही हैं।” (पृ. 114-115) 

कविताओं की संवेदना जीवन-दर्शन के व्यापक फलक को छूती है। ‘धूप और छांव’ में कवि की संवेदना अंतस् के तारों को छूकर भिगोती है:

“चले जाने से कोई छूटता नहीं
यादों के डेरे
वहीं जमे रह जाते हैं . . . ” (पृ. 118) 

ये पंक्तियाँ ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह की ग़ज़ल ‘हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छूटा करते . . . ’ की संवेदना का संस्पर्श ही नहीं करती अपितु मानव जीवन के सत्य का उद्घाटन करते हुए जीवन दर्शन के उस चिरंतन सत्य को छूती हैं जो हर युग में प्रासंगिक है जिसके यथार्थ को झुठला पाना असंभव है। ‘कराहता मुक्तिपथ’ मुक्ति और ज़िन्दगी के बीच के कोलाहल को आवाज़ देती है। परिवर्तित परिवेश के अंतरालों की सच्चाई को उद्घाटित करती ये कविता पाठकों से सीधा संवाद करते हुए परंपरा की सौंधी याद दिलाती है जो अतीत व वर्तमान समय का बीता हुआ अंतराल मात्र नहीं अपितु कई जीवनानुभवों व दृष्टिकोणों के बीतने का यथार्थ है। कवि के अंतर्मन में चल रहा द्वंद्व दृष्टव्य है:

“युग चिल्ला रहा है
और मुक्ति मौन है
ये कैसा द्वंद्व है
युग और मुक्ति का . . . ” (पृ. 117) 

‘कविता कोई तख्तो ताज नहीं’ में कवि-कर्म की जातीयता को स्थापित करते हुए उसे खेल व उत्पादन से जुड़ी सामग्री समझने वाले खेमेबाजों पर तंज़ कसता है और काव्य के औचित्य की बात करते हुए कहता है कि:

“कविता सत्ता नहीं
सत्ता के पुजारियो
नागार्जुन त्रिलोचन और पाश की कविताएँ
तुम भला क्या साध पाओगे
तुमको तो गीत चाहिए
गुदगुदाने वाले
× × ×
कविता वो काँटा है
जो काँटे को निकालने का दम रखती है ” (पृ. 120) 

कविता के इस प्रसंग में नागार्जुन, त्रिलोचन और पाश का आना मतलब चिंतन की पूरी गहनता और परिवेश के उलझे एवं जटिल संवादों का विशद विश्लेषण है; क्यों कि वैचारिकता, सघनता और कलात्मकता के अधीन उन्होंने साहित्य के जिस रूप की व्याख्या की थी वह मूलतः सृजन और सामाजिकता के जुड़ाव पर आधारित थी। कवि की प्रेरणा का मूल उत्स पूर्ववर्ती कवियों की चिंतनशीलता, संवेदनशीलता और समकालीनता है। डॉ नरेन्द्र मोहन के अनुसार, “समकालीन कविता का अर्थ किसी कालखंड या दौर में व्याप्त स्थितियों और समस्याओं का चित्रण, निरूपण या बयान भर नहीं है। बल्कि उनको ऐतिहासिक अर्थ में समझना, उनके मूल स्रोत तक पहुँचना और निर्णय ले सकने का विवेक अर्जित करना है।” निर्णय ले सकने के जिस विवेक की बात डॉ. नरेंद्र मोहन कर रहे हैं, वे ‘प्रतीक’ की कविताओं में व्यापक रूप से दृष्टिगोचर होता है। ग्लोबलाइजेशन की अंधी दौड़ के चलते गाँव अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं। कवि को गाँवों के ख़त्म होने की पीड़ा है:

“ऐसे ही टुकड़ों और लोनों से तो बनी है
राजधानियाँ
और महानगर
और उजड़े हैं
गाँव
× × ×
बदल रहा है महानगर में
और ख़ाली हो गयी है
जेब और गाँव” (पृ. 127) 

‘प्रतीक’ अपने लोक के प्रति संवेदनशील हैं। उनकी लोक चेतना अभिनवगुप्त के ‘लोकानां जनपदवासी जन:’ तक सीमित नहीं है। उनकी कविताओं का लोक क़स्बाई, नगरीय, महानगरीय से लेकर ग्रामीण अंचल तक फैला हुआ है। वे अपनी लोक की मिट्टी के सौधेपन को महसूस ही नहीं करते अपितु अपनी कविताओं के माध्यम से उसकी ख़ुशबू जन-जन को अनुभूत कराते हैं। लोक के प्रति उनकी संवेदनशीलता व्यष्टि से लेकर समष्टि तक की है। इनकी कविताओं में लोक कवि नागार्जुन की भाँति जनोन्मुखी संवेदना और सहज लोकधर्मिता का पुट दृष्टव्य है:

“पहाड़ रोता है
ख़ुद के लिए नहीं
ख़ुद से बिछुड़े लोगों के लिए 
उन बंद पड़ी बाखलियों के लिए
उन साँकलों के लिए . . . ” (पृ. 55) 

गहरे अर्थ में ‘प्रतीक’ अपने लोक व अपनी मिट्टी की संस्कृति के कवि हैं। उनके चिंतन के केंद्र में लोक में व्याप्त सामाजिक, राजनीतिक पतन ही नहीं अपितु नये सिरे से मानव मूल्यों को बचाने वाले शक्ति-स्रोतों की तलाश भी है। वे उन परंपराओं, स्मृतियों, प्रकृति में व्याप्त उन ध्वनियों को जीना चाहते हैं जिससे कभी कल-कल संगीत बहकर चराचर जगत को आप्लावित करता था। कवि को अपनी मिट्टी से उखड़ने के दर्द का एहसास है, वह उसे थामे रखना चाहते हैं:

“मिट्टी से मिला पत्थर ही तो पहाड़ है
मिट्टी जहाँ छूटी नहीं कि
पत्थर पहाड़ नहीं रहते
आख़िर मिट्टी ही पहाड़ है
पत्थर तो
उसे हमेशा दबाकर ही पहाड़ कहलाया
अरे मेरी माँ भी यही कहती है
मिट्टी ही पहाड़ है ” (पृ. 152) 

मिट्टी यहाँ कोई कामचलाऊ मुहावरा नहीं अपितु कवि की रचनाधर्मिता और जीवन-यथार्थ से धड़कते जीवन का ताप है। 

समकालीन कविता की महत्त्वपूर्ण विशेषता लोक से जुड़ाव है। लोक से तात्पर्य उस लोक साहित्य से है जिसमें संवेदनाओं का व्यापक धरातल तो है ही साथ ही जो शौरसेनी अपभ्रंश की उन बोलियों से जुड़ी है जिनमें लोक की अपार शब्द-संपदा है। ‘प्रतीक’ की लोक संवेदना का चरम लोक को धारण करने, व्यक्त करने और उसे बचाने की चिंता से संबद्ध है जिसे ‘बाटुली’, ‘है ना’, ‘जाना ही होगा’, ‘कैमरे’, ‘मेरी उँगलियाँ और क़लम’, ‘रस जो भरा है’, ‘शहर बदल गया’, और ‘आमा एक कविता थी’ में देखा जा सकता है। एक उदाहरण दृष्टव्य है जिसमें ‘प्रतीक’ लोक की उस साझी विरासत की ओर संकेत करते हैं जो धीरे-धीरे ख़त्म सी हो रही है:

“पूरे गाँव की साज्जी
जो धुलती थी
ब्या बरात
नवान पर
× × 
आज सब कुछ है
पर विश्वास नहीं . . . ” (पृ. 18) 

‘प्रतीक’ का लोक आत्मसंघर्ष का है, जो घर-परिवार की छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए उस व्यवस्था के विरुद्ध संघर्षरत है जिसने सद्भावना से परिपूर्ण जीवन के बीज अपनी दराजों में बंद कर दिए हैं। कवि प्राचीन और आज के समय की तुलना करते हुए आज के स्वार्थपूर्ण और विश्वासरहित जीवन और ज़िन्दगी की जद्दोजेहद की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि मानव उस पुतले के समान बन चुका है जो जीवित होने का ढोंग मात्र करते हैं:

“नहीं होती थी
ताला कुच्ची
चूल्हा किसी का आग किसी की
ऐंचा पैंचा
दिलों से लेकर नून तेल तक
बहुत आसान था जीना
आज सब कुछ है
पर विश्वास नहीं
लिपी पुती देहों
दिखावे के भावों
से ढका आवरण
ज़िन्दा होने का ढोंग करते पुतले
है ना ज़िन्दगी की जद्दोजेहद” (पृ. 103) 

लोक संघर्ष की अभिव्यक्ति के साथ-साथ कुमाऊँनी लोक संस्कृति का विशद चित्रण खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज़ एवं परंपराओं के संदर्भ में हुआ है। 

कविता किसी दायरे में आबद्ध न होकर अपने समय के विराट सत्य को उजागर करती है, जिसे ‘प्रतीक’ की कविताओं में देखा जा सकता है। ‘गाँव के पंख’, ‘बदल गया’, ‘बदलाव’, ‘जड़ें’, ‘बस्तड़ी से बिछुड़ते बच्चे’, ‘मौन बाखली का’ कविताओं में ग्लोबल गाँव के आगमन के उपरांत उत्पन्न आइडेंटिटी क्राइसेस के प्रति अस्मिता बोध के व्यापक फलक दृष्टिगत हैं। इनकी कविताओं में अस्मिताबोध के मूल में परिवेशगत संघर्ष, लोक जीवन में फैले रीति-रिवाज़, परम्पराएँ, संस्कार और संवेदनाओं का संस्पर्श है:

“छांस की खकोड़ा खकोड़
नहीं आती अब सुनने में
धिनाली अब नहीं पूछी जाती
भेंट होने पर
× × ×
गाँव की हवा कुछ है अब अनजानी” (पृ. 43) 

जिसे बचाने हेतु वे संघर्षरत हैं:

“क्योंकि ज़िम्मेदार कोई और नहीं
मैं ही हूँ
और किससे कहूँ
ख़ुद से ही कह लेता हूँ।” (पृ. 136) 

‘प्रतीक’ महानगरों में बैठकर दीन-हीन लोगों की दुर्दशाओं को उजागर कर बड़ी-बड़ी बात करने वाले लेखकों को उलाहना देते हुए आह्वानित करते हैं:

“आओ
जम चुके
महानगरों में रम चुके
दम खम दिखा चुके
लेखनी वीरो
अब तो आ जाओ
बंद कमरों से बाहर
जिसे लिखते हो
उसे जीने के लिए
जो खोया है
उसे पाने के लिए . . . ” (पृ. 47) 

क्योंकि प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह के शब्दों में कहें तो, “अस्मिता दया नहीं चाहती है, अस्मिता हक़ चाहती है।” 

‘प्रतीक’ की कविताओं में पाश्चात्य काव्यशास्त्री इलियट के परंपरागत बोध के भी व्यापक दर्शन होते हैं। इलियट के अनुसार कवि अतीत की परंपरा को अर्जित करके उसे आधुनिक बोध के परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित कर उसे विकसित करता है। कोई भी साहित्यिकार अपनी परंपरा से विलग होकर सृजन नहीं कर सकता क्योंकि परंपरा रचनाकार की रचना को प्रभावित करती है। ‘शब्द लौटे’ में नयी कविता की भाषीय चेतना और समकालीन कविता की संवेदना का सम्मिश्रित स्वर ध्यान आकृष्ट करता है:

“शब्द लौटे हैं
अपनी सार्थकता के साथ
साथ में ले आये हैं
मात्राएँ
अर्द्ध और पूर्ण विराम
संबोधन किया है
आज उत्तम पुरुष ने
प्रथम पुरुष को
मध्यम तो बस माध्यम बना है
शब्द को लाने का
× × ×
स्वर को पा व्यंजन
आज पूर्ण हुआ
शब्द लौटे हैं।” (पृ. 52-53) 

इलियट के अनुसार, “व्यक्ति परंपरा के साथ जन्म नहीं लेता उसे सायास ग्रहण करना पड़ता है। उसकी सिद्धि के लिए मेहनत ज़रूरी है। यह लेखक को उसके समय, स्थान एवं समकालीनता का परिचय देती है।” परंपरा से इलियट का मतलब इतिहास एवं संस्कृति से है जिसमें विकास के भाव अंतर्निहित हैं। ‘प्रतीक’ की कविताओं में इन भावों को व्यापक रूप में देखा जा सकता है। डॉ. नरेन्द्र मोहन लिखते हैं, “समकालीन की ज़मीन वर्तमान है, आज है, आज का परिदृश्य और घटनाएँ हैं। यह आज न बीते हुए कल से कटा हुआ है, न आने वाले कल से।” जिसे ‘प्रतीक’ की कविताएँ मुखरता से अभिव्यक्त करती हैं। परंपरा का स्वीकार और विकास हेतु उसे तोड़ने-बदलने की बेचैनी कवि की मुख्य विशेषता है। वे वर्तमान दौर की विवशताओं से जहाँ अपनी असहमति प्रकट करते हैं वहीं बिखरने को तैयार नहीं होते। कदाचित हारने पर भी आत्मविश्वास रूपी उम्मीद का दिया जलाए उसका उजास फैलाते हैं जो उनकी आस्था को निरंतर बल देता है:

“घोंसले बनते रहेंगे
और सपने दिखते रहेंगे
ज़िन्दा रहे तो
हौसलों को पंख लगते रहेंगे
आकाश अपना होगा
और हाँ
चील कौवे आज भी हैं
और तब भी रहेंगे।” (पृ. 123) 

परिवेश और वातावरण में आए बदलाव के कारण जीवन-मूल्यों में भी परिवर्तन स्वाभाविक है और तदनुरूप रचना में भी परिवर्तन आता है। इन्हीं के बीच अपनी समकालीनता को समझते हुए ‘प्रतीक’ इस परिवर्तन से न केवल जूझ रहे हैं वरन् इसकी शनाख़्त करते हुए समकालीन यथार्थ को उजागर कर रहे हैं। मूल्य संक्रमण के इस दौर की जाँच-पड़ताल करते हुए ‘प्रतीक’ कवि-कर्म पर गंभीर व्यंग्य्य कसते हुए कहते हैं:

“क्यों लिखना है
फ़ुटपाथ को
बलात्कार को
ख़ुदकुशी को
अब भी सँभल जा
अगर तुझे ज़िन्दा रहना है तो
लिख! 
धोखे को धोखे से
प्यार को आडंबर से
इज़्ज़त को उछालकर
बड़ा पैसा है 
इस धंधे में . . . ” (पृ. 15) 

उपर्युक्त पंक्तियाँ भवानी प्रसाद मिश्र की ‘गीत फरोश’ कविता की याद दिलाती हैं। ‘प्रतीक’ अपने समय के चरित्र का यथार्थ अंकन करने के साथ-साथ इन सबके बीच हो रही संवेदनाओं के क्षरण को रोके रखने का प्रयास भी करते हैं। मानवीय गुणों का परित्याग कर चुके लोगों को फटकारते हुए कहते हैं:

“तुम मानव नहीं
होने के लायक़ भी नहीं
मानव होने का ढोंग कर रहे थे, हो और शायद रहोगे ” (पृ. 102) 

समकालीन कवि आज के समय को विसंगत, कठिन और क्रूर परिभाषित करते हैं जिसका मुख्य कारण बाज़ारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति है जिसने जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं में इज़ाफ़ा ही किया है। ये आवश्यकताएँ मनोवैज्ञानिक दबाव और विवशता के तहत आम आदमी को अपने छद्म में फँसा रही हैं। आलोच्य संग्रह में कवि ‘है ना’, ‘समय बदलेगा’, ‘लम्हों के फासले’, ‘उसका लोकतंत्र’, ‘बीहड़ से बीहड़ तक’, ‘शहर बदल गया ’, ‘बाज़ार में एक दिन बेड़ू भी आएगा’, और ‘धार का मशरूम’, कविताओं के माध्यम से समय के इस क्रूर रूप से पहचान कराते नज़र आते हैं:

“आज तो है रिफाइंड
न सुगंध न दुर्गंध
आज के अचेतन हो चुके रिश्तोंं की तरह” (पृ. 18) 

बाज़ार व उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारे जीवन में इस तरह पैर पसार लिए हैं कि हम अपना जीवन-दर्शन भूलते जा रहे हैं। कवि को डर है कि:

“पाॅप और रॉक के तिलिस्म में
खो जायेगी मानवता
और जन्म लेगा
वो लम्हा
जिसे चले जाना है” (पृ. 89) 

लोकल से ग्लोबल के तिलिस्म को इंगित करते हुए कवि कहते हैं:

“तब तुम हमारे नहीं होगे
बस बाज़ार के होगे
बाज़ार ज़िन्दा होगा
और तुम अचेतन
तुम्हारा चोप
सूख चुका होगा
बाज़ार की गर्मी से . . . ” (पृ. 146) 

शब्द चित्र कवि के अभिव्यक्ति कौशल की सामर्थ्य को रचते हैं। उनसे कोई भी चीज़ नहीं छूटी है। अपने परिवेश के हर बदलाव को महसूस करते हुए स्थानीय एवं धुर आंचलिक शब्दों के प्रयोग से कथ्य को जीवंत बनाने का अद्भुत कौशल उनके पास है। 

समकालीन कविता की विशेषताओं में स्त्री विमर्श के विभिन्न रूप दृष्टिगोचर होते हैं। आलोच्य संग्रह में ‘नदी’, ‘उसके लिए नहीं था’, ‘मुझे उड़ना आ गया’, ‘उसका लोकतंत्र’, ‘उस छोर पर’, ‘पत्थर नदी में आवाज़ नहीं करते’, ‘वो फिर शीर्षक न बन सकी’ कविताओं में कवि ने स्त्री विमर्श को समसामयिक घटनाचक्रों के सापेक्ष आवाज़ दी है। ‘उसके लिए नहीं था’ कविता लड़की के साथ किए जाने वाले पक्षपातपूर्ण व्यवहार और उसके अधूरे सपनों की कहानी है:

“एक रोज़
वो बाँध दी गई एक खूँटे से
उसे दिया गया बहुत सारा सामान
फिर भी नहीं दी गई
पाठी, दवात और क़लम
और उसे विदा कर दिया गया
अधूरे ख़्वाबों के साथ” (पृ. 69) 

‘उसका लोकतंत्र’ में ग्रामीण स्त्रियों के जीवन संघर्षों को व्यापक अभिव्यक्ति मिली है तो ‘वो फिर शीर्षक न बन सकी’ में स्त्रीगत परेशानियों की सघन रेखाएँ, कई चुनौतियाँ, आत्मसंघर्ष व उनसे निपटने के अपने तरीक़े हैं। इनकी कविताओं में चित्रित स्त्री अपने जीवन-संघर्षों से दुखी होकर रोती-बिलखती नहीं, अपितु उनसे उभरकर अपने अस्तित्व को सँभालती नज़र आती है। कवि कहते हैं:

“ज़िन्दा है
अपने बलबूते . . . 
सिंदूर के रहमो-करम पर नहीं
अपना वुजूद
अपने दम पर सम्हाल पायी है
पहाड़ की 
पहाड़ सी औरत” (पृ. 106) 

‘मुझे उड़ना आ गया’ कविता की स्त्री हिम्मत परस्त असहाय नहीं वरन् साहस और आत्मविश्वास से लबरेज़ संघर्षशील है, जो परिस्थितियों को बदलने का माद्दा रखती है। इस कविता में कवि ने लड़कियों की उड़ान व उस पर तथाकथित सामाजिक ठेकेदारों की मनोदशा के सत्य को चित्रित किया है। उत्तर आधुनिक स्त्री विमर्श की ओर संकेत करते हुए स्त्री की अनंत गगन में उड़ान और उसके सकारात्मक व नकारात्मक पक्षों को बड़ी ही यथार्थता से उद्घाटित किया है। स्त्री को काव्य वस्तु न बनाकर उसके वास्तविक रूप को पूरे परिवेश के साथ चित्रित किया है। इनकी कविताओं में स्त्री जीवन के हँसते-गाते और संघर्षशील जीवन को अभिव्यक्ति तो मिली ही है साथ ही स्त्री के प्रगतिशील और परंपरित रूप के सम्मिश्रित दर्शन भी होते हैं:

“उसके दायें हाथ में आंसी थी
बायें में मोबाइल
वो जा रही थी
धंधुरा के जंगल
मानो उड़ रही हो
अनंत गगन में . . . ” (पृ. 75) 

सृष्टि का आधार जहाँ प्रेम है वहीं यह सृजन का रहस्य भी; जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह आत्मगत चेतना हिंदी साहित्य की कालावधियों में विभिन्न रूपों में दृष्टिगत है। आधुनिक काल में जब कविता ने विस्तार पाया तो प्रेम जीवन मूल्य की तरह शामिल हुआ। समकालीन कविता में प्रेम जीवन की संभावनाओं के आस-पास है। ‘माफ करना नहीं लिख पाता’ कविता में प्रेम की पराकाष्ठा देखने योग्य है। कवि के अनुसार प्रेम वह भाव है जिसे महसूस कर जिया जाता है। प्रेम को शब्दों में समेटना उनके बस की बात नहीं है। ‘प्रतीक’ कहते हैं:

“जब-जब तुझे समेटने लगा
अपने शब्दों में
तू बिखर गई
अबूझ हो गई
मुक्तिबोध की कविता की तरह . . . 
प्यार के पैमानों में
उन भावों के ज्वार भाटो को समेटना
मेरे बस में नहीं” (पृ. 83) 

आलोच्य संग्रह में समकालीन कविता की अन्य विशेषताएँ भी दिखाई देती हैं। जैसे श्रम की महत्ता, प्रश्नाकुलता, अस्वीकृति और विद्रोह का भाव, परिवार का महत्त्व आदि। 

आलोच्य संग्रह में कहीं-कहीं पर व्याकरणिक अशुद्धियाँ भी देखने को मिलती हैं, पदों व वाक्यों का संस्कार ठीक से नहीं हो पाया है या फिर प्रूफ़ संबंधी ग़लतियाँ जिससे अर्थप्रतीति हेतु थोड़ा जोड़-तोड़ करनी पड़ती है। (पृ. 50), (23), (पृ. 31), (पृ. 70) की त्रुटियाँ इसके उदाहरण हैं, लेकिन कथ्य की सशक्तता के कारण इन त्रुटियों को अनदेखा किया जा सकता है। दूसरी कमी यह है कि एक कविता के अंश दूसरी कविता में ज्यों के त्यों लिए गए हैं (पृ. 18) और (103) इसके उदाहरण हैं। इसी तरह ‘कहो’ (पृ. 79) कविता की पुनरावृत्ति शीर्षक बदलकर ‘अफीम हो क्या’ (पृ. 90) कविता में हुई है जिसे जल्दबाज़ी और प्रूफ़ संबंधी ग़लती ही कहा जाएगा। आशा है कि आगामी संग्रहों में ‘प्रतीक’ इन बातों का विरोध ध्यान रखेंगे। 

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि ‘कराहता मुक्तिपथ’ में समकालीन कविता की संवेदनशीलता एवं प्रतिध्वनियों की गूँज है। अपने व्याकुल समाज की गवाही के साथ-साथ संकटों की पहचान भी है। कवि ने जहाँ रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में होने वाले सामान्य जीवन प्रसंगों का निरूपण किया है वहीं अपनी लेखनी से वैश्विक परिदृश्य को भी समेटा है; जो कवि के अनुभव और दृष्टि के बीच की साम्यता का परिचायक है। संग्रह की प्रत्येक कविता को अपने आप में प्रतिनिधि कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि प्रासंगिक होने के साथ-साथ जीवन तत्वों की व्यापक पड़ताल करते हुए अद्भुत साहस से मानव विरोधी ताक़तों का पर्दाफ़ाश करती है और समकालीन कविता की संवेदना को विस्तार देती है। संग्रह के शीर्षक की बात करें तो कवि के शब्द दृष्टिगत हैं:

“आख़िर उस ओर इतना सन्नाटा क्यों है
क्या मुक्ति की चाह
उन पुलों के ढह जाने का इंतज़ार कर रही है
युग हर दिन
चीख रहा है
मुक्ति की चाह मुक्ति की चाह मुक्ति की चाह” (पृ. 117) 

समकालीन कविता की युगीन चेतना और संवेदनशीलता के पारस स्पर्श से झिलमिलाता यह आकाश पठनीय एवं संग्रहणीय है। ‘प्रतीक’ को हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनाएँ!!

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