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गहन तिमिर में जनवादी उजास की ढिबरी जलाती कविताएँ

 
पुस्तक: भीतर का देश (काव्य संग्रह)
लेखक: रमेश प्रजापति 
प्रकाशक:सहज प्रकाशन 
संस्करण: 2021 
पृष्ठ: 112     
मूल्य: ₹150/-

‘भीतर का देश’ नामक कविता संग्रह हिंदी कविता में एक महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करने वाले सजग और ज़िम्मेदार कवि रमेश प्रजापति का तीसरा कविता संग्रह है। यह संग्रह सन् 2021 में सजग प्रकाशन, मुजफ्फरनगर से प्रकाशित हुआ है। इससे पहले उनके दो संग्रह, ‘पूरा हँसता चेहरा’ और ‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘भीतर का देश’ संवेदनशीलता और संघर्ष में लिपटी मानवता की पक्षधर कविताओं का संकलन है। इसमें ग़रीबी और लाचारी से उत्पन्न पीड़ा, मोहभंग, आक्रोश, आशा-निराशा, विकास-विनाश, संघर्ष, जनपक्षधरता, राजनीतिक चेतना, धर्म के पाखंड की आलोचना, प्रगतिशीलता, बाज़ारवाद, हाशियाई समाज के प्रति सजग समर्पण इत्यादि मुख्य विषय हैं। उनकी कविताएँ पाठक से सीधे संवाद करती हैं। 

संवेदना काव्य सृजन का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। रमेश प्रजापति की कविताओं में संवेदना की धारा बहुतायता से बहती है, जो गहन अनुभव का प्रतिफलन है। ये संवेदनाएँ प्रकृति के साथ तालमेल करती हुई उसके उपादानों का सहारा लेकर सामाजिक विसंगतियों को उजागर करती हैं। समीक्ष्य संग्रह की पहली कविता ‘धान का खेत’ शीर्षक कविता का उदाहरण दृष्टव्य है, जिसमें प्रकृति सहचरी रूप में मनुष्य के साथ जीती व मरती है:

“कच्चे दूध की उमड़ी नदी से 
धान की सुगंध 
सुदूर . . ., पहुँचती है चिड़ियों तक 
खिल उठता है कोठी-कुठलों का मन
×    ×    ×
उँगलियों पर हिसाब लगाते पिता
बेटी के विवाह का उतारते हैं क़र्ज़
घर में जगमगाती नई ढिबरी से 
परास्त होता है अँधेरे का पिशाच
×    ×    ×
हवा में
धान की बालियों से तरंगित 
वातावरण में तैरने लगता है
मधुर संगीत श्रेष्ठ” (पृ. 11-12) 

आओ दोस्त, कविता में कवि कर्म पर बल देते हुए भविष्य को तरंगित करने की बात करते हैं। अँधेरे से लड़ते उस दीपक को देखने का आग्रह करते हैं, जिसमें उम्मीद रूपी तेल भरा हुआ है। ताकि उस उम्मीद का उजास वह भी अपने अंदर भर सकें:

“अँधेरे के ख़िलाफ़ लड़ते 
उस दीपक को देखें, जिसमें भरा है 
उम्मीद का तेल
आओ दोस्त
पहाड़ों का सीना चीरकर 
निकाल लाएँ एक नदी
जिससे एक बार फिर 
तरंगित हो उठे भविष्य!” (पृ. 13) 

कवि की संवेदना के व्यापक धरातल को तो देखिए कि इस सांसारिक प्रकृति में हर किसी की कोई न कोई चाह होती है। पर कवि दुःखों को बाँटना चाहता है:

“मैं चाहता हूँ बाँटना 
तुम्हारी वीरान आँखों का दुःख!” (पृ. 14) 

‘स्लेट पर बच्चा कविता’ बच्चे के मनोविज्ञान को पढ़ने की कोशिश है। बालमन दुनियादारी के झंझावातों से उठने वाली नफ़रतों को मिटाकर धरती पर अपनी कोमल हँसी से भाईचारे की ख़ुश्बू फैलाना चाहता है:

“दीवार पर लिखी नफ़रत पर 
थूककर उसी क्षण मिटा देता है कोमल हथेली से 
और स्लेट पर लिखकर भाईचारा उछालता है हवा में।” (पृ. 15) 

‘उदास वीणा’ कविता विपरीत परिस्थितियों में भी हताश न होकर सम्भावना की तलाश है। कवि बुरे दिनों में अभी अच्छे दिनों के राग को गुनगुनाते हुए समय की राख में दबी स्मृतियों को संगीत देते हैं, ताकि उदास पड़ी वीणा से फिर जीवन के स्वर झंकृत हो उठें:

“एक नाव लहरों के बीच 
तलाश रही है सम्भावनाओं का किनारा
एक नदी जीवन की शुद्धता को तोड़ 
गीले कर रही है आँखों के किनारे
×    ×    ×
जीवन के बुरे दिनों में 
गुनगुना रहा हूँ अच्छे दिनों का राग” (पृ. 16) 

रमेश प्रजापति बिना किसी लाग-लपेट के हमारे आसपास की बात करते हैं। उनकी कविताएँ सत्ता का मान-मुनव्वल नहीं करती, बल्कि अपनी धारदार पंक्तियों से विकास का पर्दाफ़ाश करते हुए सत्ता को आईना दिखाने का काम करती हैं:

“पेट में पैर दिए फ़ुटपाथ पर बच्चे लेटे हैं 
और जनतंत्र की दुहाई देता 
बहुत तेज दौड़ रहा है 
विकास रथ का पहिया
×    ×    ×
सत्ता की घोषणाएँ 
गाँव के टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर लड़खड़ा कर दम तोड़ देती हैं
पहाड़ की ज़रूरतें आकाश के माथे पर 
चाँद सी चमकती हैं” (पृ. 18-19) 

‘गौरैया के सलेटी पंख’ कविता, जहाँ दुनियादारी के अनसुलझे रहस्य और झंझावातों में फँसी मानवता की मार्मिक चीत्कार है, वहीं इस कविता में कवि का लोक के रंगों से जुड़ाव भी मुखरित रूप में उजागर हुआ है। कवि बाज़ारवाद के इस दूषित दौर में अपने पर्यावरण के दूषित होने से विचलित होकर अपना दर्द बयाँ करते हुए कहते हैं:

“जिस नदी को पार करके 
तोड़ लाया करते थे पहाड़ की चोटी से
सूखी लकड़ियाँ
बुरांस के फूल 
आज महानगर का कचरा धोती नदी की जगह 
गंदे नाले की कीचड़ में लिपटकर 
भारी हो गए स्मृतियों में फुदकती गौरैया के सलेटी पंख” (पृ. 21) 

रमेश प्रजापति की कविताएँ व्यापक अर्थ में जन कल्याण से प्रेरित हैं। वे जहाँ उपनिषदों द्वारा उच्चारित “वसुधैव कुटुंबकम” की तर्ज़ पर प्रेम को महत्त्व देते हुए सर्वजन हिताय की बात करते हैं वहीं वर्तमान समय और बाज़ारवाद के सत्य पर तंज़ कसते हुए उसे बेबाकी से उजागर भी करते हैं। ‘प्रतीक्षा में पृथ्वी’ कविता से एक उदाहरण दृष्टव्य है:

“जिस दिन जीवन के बीहड़ में 
धरती पर गूँज उठेंगे प्रेम गीत
×    ×    ×
उस दिन अपने भीतर से निकलकर 
सच्चाई की कठोर ज़मीन पर खड़ा होकर 
मारे ख़ुशी के चीखना चाहता हूँ
×    ×    ×
बाज़ार का यह ऐसा दौर है बंधु
 जिसमें कुछ भी ख़ारिज किया जा सकता है” (पृ. 24-25) 

‘आखिर कब तक’ और ‘अंतिम आदमी’ शीर्षक कविता में कवि ने समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति की पीड़ा को उजागर किया है। जो दिन-रात हार तोड़ श्रम कर अपना जीवन व्यतीत करता है:

“अंतिम आदमी की पीड़ा 
मापने का पैमाना खो गया था राजपथ पर 
प्रार्थना में उठे अंतिम आदमी के हाथ 
काटने पर आमादा थी समय की कुल्हाड़ी
मैं मिलना चाहता हूँ 
उस अंतिम आदमी से
समुद्र से गहरी है जिसके दुःख सहने की क्षमता” (पृ. 29) 

‘गुस्ताखी मुआफ’ कविता में कवि ने विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से सामाजिक चरित्रों पर गहरा व्यंग्य किया है जो गहन अनुभवों का प्रतिफलन है। ‘हमें फ़र्क़ नहीं पड़ता’ कविता में सभ्य कहे जाने वाले तथाकथित सामाजिक एवं राजनीतिक चेहरों पर व्यंग्य्य कसते हुए और आक्रोश से भरे शब्दों में उन्हें आईना दिखाने की कोशिश भी की गई है:

“हवा में ही क्यों न दबोच ले चिड़िया को बाज़ 
ख़ून किसी का भी बहे पर नदी बहती रहे 
क्योंकि जनता हमारी और हम जनता के नुमाइंदे 
हमें फ़र्क़ नहीं पड़ता
बस! किसी भी क़ीमत पर
सिकनी चाहिए हमारी रोटी
हड्डियाँ चाहे किसी की भी हैं” (पृ. 32) 

‘नदी एक धड़कन है’ कविता में कवि प्राकृतिक उपादानों का सहारा लेकर जीवन का गीत गाते हैं। भूमंडलीकरण से उत्पन्न बाज़ारवाद के संक्रमित काल में भी, कवि हृदय अपने भीतर प्रवाहित नदी में जीवन की उम्मीद ढूँढ़ता है:

“अपनी सहस्त्र धाराओं के साथ
हमारे भीतर बह रही है एक नदी
जिसमें बची हुई है जीवन की उम्मीद!” (पृ. 35) 

‘दिल उदास है’ कविता मर्म पर चोट करती है। बच्चियों के साथ होने वाले कुकृत्यों को देखकर प्रकृति के सारे उपादान भी अपनी लाचारीवश उदास हो जाते हैं:

“घास काटने गई बच्ची की मार्मिक चीत्कारों का दर्द 
पसर गया जंगल की आत्मा में 
अपनी बेबसी पर कुलबुलाती रही नदी
भोंकते-भोंकते थक कर चुप बैठ गए कुत्ते” (पृ. 36) 

आज मानव समाज स्वार्थ के वशीभूत हो ख़ुद के लिए ही जी रहा है, सामाजिक मूल्य ख़त्म हो रहे हैं। ख़त्म होती मानवीय संवेदनाओं का यथार्थ चित्रण कवि ने इस कविता में किया है:

“बूढ़े खांसते-खांसते दोहरे हुए जा रहे हैं
कोई हाथ तक नहीं बढ़ाता डूबते की बेबसी देख
बहुत तेज़ी से बदलते सामाजिक समीकरण में 
सब ख़ुद के लिए जीना सीख रहे हैं
उम्मीद का लाल सूरज दिखाई नहीं दे रहा है
अपनी बेबसी पर सब चुप हैं
पेड़ उदास है” (पृ. 37) 

जब जीवन संघर्षमय हो जाता है और उसका कोई भी प्रतिफल नज़र नहीं आता, तो कभी-कभी कवि मन विचलित हो समय को कोसने लगता है; पर हिम्मत नहीं हारता। और बीच-बीच में ख़ुद को टटोलते हुए ख़ुद में ख़ुद के लिए एक परिहास की कल्पना कर बैठता है:

“वक़्त की धूल में लिपटकर
इतना मैला हो गया हूँ
कि रगड़ रहा हूँ रंदे से
यह देह
परत-दर-परत उतर रही है मैल 
अट्टहास कर रहा है 
मेरे भीतर बैठा कोई!” (पृ. 39) 

‘दृश्य’ कविता में कवि ने दिन-प्रतिदिन अँधेरे के सागर में डूबती धरती और धीरे-धीरे धुँधलाते’ जीवन की पीड़ा को उजागर किया है। परिवेश की यथार्थता का अंकन करते हुए ‘महाकाव्य’ कविता में वे जीवन को नोटबुक मानते हुए कहते हैं:

“जिंदगी 
एक नोटबुक है
जिस पर वक़्त 
प्रतिदिन 
एक महाकाव्य लिखता है।” (पृ. 47) 

‘कविता की तलाश’ शीर्षक कविता में कवि ने व्यंग्यात्मक दृष्टि से सामाजिक विसंगतियों को उजागर किया है। इस कविता में कविता शब्द मानव का पर्याय है, जो जंगल में खटता है, खेत में बेगार करता है, और क़र्ज़ के दबाव में आत्महत्या करता है:

“सुविधा पैर पसारे पड़ी है बेशक़ीमती बँगलों में 
बौनी हो गई उनकी संवेदना 
दिखाई नहीं देती उन्हें 
जंगल में खटती 
खेत में बेगार करती
क़र्ज़ के दबाव में आत्महत्या करती 
ज़मींदार के यहाँ से सिसकती
भूख से कुनमुनाती 
लोक कविता की सघन पीड़ा” (पृ. 48-49) 

सामाजिक विसंगतियों को उजागर करने के साथ-साथ कवि मुहावरेदार शैली में उपदेश देते हुए नज़र आते हैं:

“गिरना ही है तो
जीवन को बचाये रखने में
धरती की कोख में उम्मीद की तरह गिरना
×    ×    ×
ज़्यादा ही शर्मनाक होता है 
कायरों की तरह इतिहास के पन्नों में गिरना
सबसे ख़तरनाक होता है नज़रों से गिरना 
चुल्लू भर पानी में डूब जाना बेहतर है
अपनी बात से गिरने की बजाय” (पृ. 50-51) 

‘सोचो! कई-कई बार सोचो!!” कविता में कवि ने युद्ध की विभीषिका और आतताइयों के ऊपर तंज़ कसते हुए, उनके चरित्र को उजागर किया है:

“सबसे ज़्यादा ख़तरनाक है उनके लिए विचारों का उठना
सो, उनके निशाने पर
स्कूल-कॉलेज सबसे पहले ही रहते हैं 
फूटी आँख नहीं सुहाते उन्हें प्रेमगीत 
सिर्फ़ नेपथ्य में ही रखते हैं वे 
प्रेम का स्वांग” (पृ. 53) 

कवि के अनुसार जीवन की यात्राएँ अंतहीन होती हैं, जिनकी पदचाप हमारे भीतर भी सुनाई देती हैं। इस जीवन को रागमयी बनाने हेतु प्रेम का भाव ज़रूरी है। यह दुनिया बिना प्रेम के निसार है:

“प्रेम एक ऐसा रोग है 
जो नियोजन में 
झंकृत करता है साँसों के तार” (पृ. 55) 

कवि दुनिया के सब रंगों में सबसे महत्त्वपूर्ण रंग प्रेम का मानते हैं। उनके अनुसार सबसे गहरा रंग प्रेम का है, जिसके ख़िलाफ़ आजकल साज़िशें हो रही हैं। परन्तु इस रंग को बचाने की हरदम कोशिश की जानी चाहिए:

“दुनिया के सब रंग फीके 
बड़ा गहरा प्रेम का रंग
×    ×    ×
आजकल सारी साज़िशें हो रहीं इस रंग के ख़िलाफ़ 
परन्तु हरदम कोशिश करता हूँ 
कि धरती पर बचा रहे यह रंग।” (पृ. 65) 

कवि प्रेम को सहेजना और सँवारना चाहते हैं, इसलिए वे ‘परिणति’ में कहते हैं:

“हाथ से छूटे 
दर्पण की तरह 
टूटकर बिखरना 
क़तई नहीं
मेरे प्रेम की परिणति।” (पृ. 72)

रिश्तों की डोर नाज़ुक धागों से बँधी रहती है। मानव जीवन में रिश्तों के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए, कवि रिश्तों की डोर को मज़बूती से पकड़ने का आह्वान करते हैं:

“हे! प्रिय
तुम मज़बूती से पकड़े रखना रिश्तों की यह डोर
कई दिनों से कुछ ठीक नहीं 
हवा का मिजाज।” (पृ. 68) 

क्योंकि वर्तमान समय में रिश्तों की डोर भी जोड़-घटाने के भरोसे पर ही चल रही है, रिश्ता भी एक व्यापार सा बन गया है; जहाँ फ़ायदा देखा जाता है, वहीं रिश्ता परिपक्व होता है। रिश्ते दिल से निभाए जाते हैं; निःस्वार्थ भाव से:

“जोड़ 
घटा
गुणा 
भाग 
यानी 
तुम्हारे रिश्ते तय होते हैं 
गणित के नियम पर
और मेरा गणित 
अक़्सर . . . 
कमज़ोर रहा है
मित्र!” (पृ. 69) 

‘बच्चे’ शीर्षक कविता में कवि ने बच्चों के कंधों पर डाली जाने वाली इच्छा के बोझ की बात कही है, जिसके तले उनके कंधे दब से जाते हैं। बच्चे सरहदों की भाषा नहीं जानते और उनका कोमल मन बंदिशों को भी नहीं मानता। वह नफ़रत की भाषा नहीं, अपितु प्यार की भाषा समझते हैं:

“सीरिया और वियतनाम की सरहद पर 
लाशों के बीच बैठे बच्चे 
युद्ध का मतलब क़तई नहीं जानते
× × ×
किसी भी बंदिश को नहीं मानते बच्चे 
सब भाषाओं में सिर्फ़ 
प्यार की भाषा समझते हैं बच्चे” (पृ. 58-59) 

हमारे समाज में सत्ता में बैठे लोगों में कुछ जमात ऐसे लोगों की है जो सब कुछ जानते हुए भी चुप्पी साधे रहते हैं। अपने आस-पास होने वाली दुर्घटनाओं को ऐसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं मानो उन्हें कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता; जिसका यथार्थ एवं जीवंत चित्रण कवि ने ‘निपुण’ कविता में किया है:

“चुप्पी उनका बड़ा हथियार है
वे सिर्फ़ देखते हैं 
क्योंकि देखना उनकी जमात का बहुत पुराना जुमला है” (पृ. 63) 

वर्तमान समय में सच बोलना ही सबसे बड़ा अपराध है। हमारे चारों ओर जंगल तंत्र अपना साम्राज्य फैला रहा है। गाँधीजी के अनुसार, “सच्चा प्रजातंत्र कभी भी हिंसा और दंड शक्ति पर आधारित नहीं रह सकता। व्यक्ति के पूर्ण और स्वतंत्र विकास के लिए जनतांत्रिक समाज को परस्पर सहयोग और सद्भाव, प्रेम और विश्वास पर आधारित रहना चाहिए . . . प्रजातंत्र हिंसा के आधार पर टिक नहीं सकता।” लेकिन आज हवाएँ ठीक इसके विपरीत बह रही हैं; जिसका यथार्थ वर्णन रमेश प्रजापति ने ‘लहूलुहान है बापू की आत्मा’ कविता में किया है:

“इस जंगल तंत्र में
 क्षमा योग्य नहीं तेरा अपराध
क्योंकि अहिंसा की इस धरती पर 
अपना सही-सही अर्थ खोजते भटक रहे 
बापू के तीनों बंदर
वक़्त की ख़ूनी पंजों की खरोंचों से 
लहूलुहान हो रही है बापू की आत्मा 
साम्राज्यवादी सत्ता के झंडे तले 
हम मूकदर्शक बने खड़े हैं।” (पृ. 74) 

‘गुड़हल का फूल है जिंदगी’ और ‘विडंबना’ कविता में कवि ने पूँजीवाद और उसके चंगुल से अपने हिस्से के दानों को छीनने की बात तथा उनके भारी-भरकम बूटों तले कुचले जाने वाले विचारों की बात कही है। जिनके लहू के धब्बे सड़क पर कहीं नहीं दिखते, सिर्फ़ हवा में मौत की बू की तरह तैरते हैं। ‘भीतर का देश’ शीर्षक कविता में ख़ामोशी, सन्नाटा, लहर, डर इत्यादि शब्दों को अपने मुहावरों से अंकित कर कवि ने चुप्पी को व्याख्यायित किया है कि किस तरह किसी अपने की चुप्पी से अंतर्मन दर्द से भर जाता है:

“तुम्हारी चुप्पी से तिड़ककर 
बहुत कुछ एक साथ 
दर्द से भर जाता है भीतर का देश।” (पृ. 77) 

‘खोजबीन’ कविता में कवि ने वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था पर तंज़ कसा है। शहरों के चकाचौंध और व्यस्त जीवन में संवेदना का कहीं स्थान नहीं होता है। कवि का कहना है कि शहर की चकाचौंध गाँव से निकले किसान व मज़दूरों को निगल जाती है:

“अपनी मिट्टी से बिछुड़े 
उन किसान-मज़दूरों को ढूँढ़ रही हैं ज़रूरतें 
जिन्हें निगल गईं शहर की संवेदनहीन चकाचौंध” (पृ. 79) 

‘वह सपने देखती है’ कविता में कवि ने पितृसत्तात्मक बरगद के तले फलती-फूलती सामंतवादी व्यवस्था की ओर संकेत किया है और ‘हिस्सेदारी’ कविता में रोहित वेमुला को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इस दुनिया में जीने व सपने देखने का हक़ सबका है:

“बिलांधभर ही सही 
धरती सबकी, आकाश सबका है 
सूरज, चाँद, तारे, फूल, 
छाँव, हवा, पानी, धूप, रंग सबके हैं” (पृ. 82) 

कवि वर्तमान समय को हिंसक मानते हैं। ‘बचाना’ आज के हिंसक समय में आदमी की पहचान बचाने की बात करती कविता है। कवि का कहना है:

“इस हिंसक समय में वैसे ही बचा लेना चाहता हूँ 
वे सपने 
जिसमें बची हो आदमी की पहचान
एक अदद आदमी की तरह।” (पृ. 85) 

कवि के अंदर आक्रोश है। वे बड़ी सहजता से सत्ता एवं उसके अनुयायियों को आईना दिखाते हुए फटकार लगाते हैं:

“हम हरदम भूख-भूख चिल्लाते
आप बैठ हमारी छाती पर पूँजी के गीत गाते
सत्ता के मद में डूबे मस्त हाथी से 
ज़हर उगलते तुम्हारे अनुयायियों के लिए 
कोई मायने नहीं रखता बेबस जनता का जीवन 
×    ×    ×
हे महाराज! 
आप बो रहे अँधेरे के बीज
अपने लहू और पसीने से तरबतर 
हम सींच रहे सूरज के पौधे।” (पृ. 86) 

कवि के अनुसार अपनी शक्तियों और क्षमताओं को न जानने वाला समाज प्रार्थना के बलबूते पर ही जीवन यापन करता है जबकि अपनी क्षमता को पहचानने और परिवर्तन की अलख जगाने पर ही समाधान की मंज़िलें पास आती हैं और सामूहिक जनचेतना की अभिव्यक्ति साकार रूप लेती है। कवि आह्वान करते हुए कहते हैं:

“सभ्यता के विपरीत बह रही है नदी 
ऐसे में 
उखड़े हुए पौधे का बयान सुनो! 
और धरती के गीत गाओ
यह प्रार्थना का समय नहीं है।” (पृ. 89) 

धरती के गीत गाने के लिए कवि कर्म पर बल देते हैं। उनका कहना है:

“एक टुकड़ा धूप के ख़ातिर 
हमें लोहे के चने चबाने होंगे
तब जाकर धरती पर लाल उजाला होगा।” (पृ. 91) 

यह लाल उजाला समता, समानता और भाईचारे की भावना का प्रतीक है। जिसकी कमी से कवि के भीतर का देश उदासीन है। 

‘कहीं कुछ नहीं’ कविता में विकास के नाम पर की जाने वाली राजनीति की ओर इशारा करते हुए कवि कहते हैं:

“तेरे वादे 
फिर वादे
फिर-फिर वादे
उनसे बँधी हमारी ख़ुशियों की डोर 
जिसके पंख रोज़ नोचता समय का बाज़ 
तुम ऐसे झूठ हो
जिसे हम सदी का सच मानकर 
विकास के गीत गा रहे हैं” (पृ. 90) 

कवि के अनुसार वर्तमान समय धोखेबाज़ों से भरा हुआ है। समय ने उन्हें बहुत कुछ सिखाया लेकिन चेहरा पहचानना नहीं सिखाया। जिस कारण वे हर बार धोखा खा जाते हैं। ‘सबक’ कविता में वे समय से मुखौटों की भीड़ में ख़ुद को पहचानने का हुनर सिखाने की गुज़ारिश करते हैं:

“यार समय! 
देर बहुत हो चुकी 
फिर भी ये हुनर सिखा दे आख़िर
जो थोड़ा-सा बचा हूँ
उसे सँभालकर रख सकूँ 
मुखौटों की इस भीड़ में 
ख़ुद को पहचान सकूँ
इस क़द्र उलझ गया हूँ अपने में ही 
कि अब तो मेरा चेहरा भी मुझे धोखा देने लगा है” (पृ. 92) 
‘होना न होना’ विकट परिस्थितियों में भी अपने अस्तित्व को बचाए रखने की कविता है। ‘वे पूँजीवाद के चितेरे हैं’ कविता में कवि समाज में व्याप्त अवसरवादिता की ओर संकेत करते हुए आपदा पर की जाने वाली राजनीति एवं उसे स्वार्थपूर्ति का अवसर बनाने वाली मानसिकता को उजागर करते हुए कहते हैं:

“वे पूँजीवाद के चितेरे
और उपभोक्तावादी संस्कृति के दुलारे हैं 
उन्होंने समय के साथ चलकर 
जीने का हुनर सीख लिया है
उनकी कथनी और करनी में धरती-आसमान का फ़र्क़ है
उनका हर क़दम बाज़ार में डटे रहने के लिए उठता है
वे आपदा को अवसर में भुनाने में पारंगत हैं
वे किसी भी बात को अपने फ़ायदे के लिए 
जितना चाहे तोड़-मरोड़ सकते हैं” (पृ. 95) 

रमेश प्रजापति जनवादी विचारधारा के पोषक हैं। उनकी काव्य पंक्तियाँ व्यापक अर्थ में जन कल्याण से प्रेरित हैं। वे बेदर्द समय के ख़ूनी पंजों से जीवन के रंगों और ख़ुशियों को बचाने की चाहत रखते हैं ताकि इस धरती पर जीवन खिलता रहे:

“इस बेरहम समय के ख़ूनी पंजों से 
मैं सूरज के उन रंगों 
और ख़ुशियों को बचाना चाहता हूँ 
जिनसे इस धरती पर 
जीवन 
जीवन की तरह उल्लसित होता रहे।” (पृ. 96) 

‘नया राष्ट्रवाद’ कविता को इस संग्रह की प्रतिनिधि कविता कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस कविता के बग़ैर भीतर का देश अधूरा सा लगता है। कवि के अनुसार यह राष्ट्रवाद हमारे देश को भीतर ही भीतर दीमक की तरह चाट रहा है। नेताओं द्वारा जनता के भविष्य को दाँव पर लगाकर किए जाने वाले राजनीतिक समझौतों का पर्दाफ़ाश करते हुए कवि कहते हैं:

“अचानक उतार दी जाती है खोपड़ी में गोली
 कुछ देर शोर मचता है 
और फिर सब कुछ सामान्य की तरह घटित होने लगता है
×    ×    ×
कुछ समझौते हैं
जो जनता के भविष्य को दाँव पर लगाकर किये जाते हैं ” (पृ. 102) 

और राजनीतिक तानाशाही ऐसी है कि सत्ता के विरुद्ध बोलने वालों को राष्ट्रद्रोही घोषित कर यातनाएँ दी जाती हैं। जनवाद का खोखला नारा देने वालों का पर्दाफ़ाश करते हुए कवि कहते हैं:

“जो होना है उसे होने नहीं दिया जा रहा है
 दिन-प्रतिदिन अँधेरा बढ़ता जा रहा है, 
हम लाल सवेरे की उम्मीद में 
जनवाद . . . जनवाद . . . जनवाद चिल्ला रहे हैं
हमारे माथे पर 
नए राष्ट्रवाद के पोस्टर चिपकाए जा रहे हैं 
और उसकी परिधि से जनता को बाहर धकेला जा रहा है” (पृ. 103) 

जनवाद की नींव ही मानवीय प्रेम है। इस प्रेम का सहारा लेकर राजनेताओं द्वारा अपनी स्वार्थसिद्धि की जाती है। जनतांत्रिक व्यवस्था का एक मुख्य भाग चुनाव होता है, जिसके आधार पर जनता अपने नेता का चुनाव करती है। कवि के अनुसार भ्रष्ट तंत्र में चुनाव प्रणाली भी दूषित हो चुकी है। समाजवाद या जनवाद की गर्मी सिर्फ़ चुनावी माहौल में ही नज़र आती है, जिसका पर्दाफ़ाश कवि ने बड़ी ही सजगता से किया है:

“देश में हर तरफ़ चुनाव की गर्मी है
×    ×    ×
सबने सादगी का चोला पहना है
मंदिर-मस्जिद की रट लगानेवालों के लिए 
इस मौसम में कोई ऊँच–नीच नहीं है 
जाति और वर्ग के भेद मिट गये हैं
हम जैसे मैले-कुचैलों के घर खाने की होड़ मची है 
× × ×    ×    ×
जिसे देखो, वही अपना उल्लू साधने में लगा है 
चुनाव का यह अजीब दौर है
जिधर देखो उधर अजीब समाजवाद छाया है।” (पृ. 105) 

‘बदलो’ शीर्षक कविता में, कवि राष्ट्रवाद के नाम पर फैल रहे जंगलराज को बदलने का आह्वान करते हैं:

“उठो! धूप और लू की परवाह किए बिना
 इस ज़हरीली आब-ओ-हवा को बदलो! 
भाईचारे की जड़ों में मट्ठा डालते 
राष्ट्रवाद के नाम पर जंगलराज को बदलो! 
×    ×    ×
अबकी चूके तो हाथ मलते रह जाओगे 
बदलो! जितना जल्दी हो सके 
प्रदूषित होती इस व्यवस्था को बदलो!” (पृ. 106-107) 

सत्ता की आड़ में राजनेताओं की मनमानी चलती है। कहने को तो हम लोकतांत्रिक देश के बाशिंदे हैं, लेकिन कवि के अनुसार संसद में जो योजनाएँ पास होती हैं जनता की सुख-समृद्धि के लिए नहीं, अपितु विशिष्टजनों और पूँजीपतियों को समृद्ध और प्रभावशाली बनाने हेतु बनाई जाती हैं और जनता का भविष्य दाँव पर लगाया जाता है:

“दूर से आए मज़दूर
देश की राजधानी के जंतर-मंतर पर बैठे
अपने निकटतम दिनों में डूबे हैं
किसान अपनी फ़सल के उचित मूल्य के लिए
संसद का मुँह ताक रहे हैं” (पृ. 109) 

क्षणिक स्वार्थपूर्ति एवं सत्तालोलुपता हेतु नेतागण जाति एवं वर्ग विशेष के आधार पर धर्म का उपयोग करने से भी नहीं हिचकिचाते और अपनी विचारधारा को जबरन आम जनता के ऊपर थोपते हैं। कवि के अनुसार:

“दरअसल वे इस उर्वरा धरती पर 
अपनी विचारधारा के बीज बोना चाहते हैं, 
जिसमें किसान मज़दूर के लिए कोई जगह नहीं है
एक धर्म को दूसरे धर्म के विरोध में खड़ा करना चाहते हैं 
उन्हें आदमी से ज़्यादा धर्म की चिंता है 
×    ×    ×
वह ऐसी घोषणाओं का पहाड़ खड़ा कर रहे हैं
जिस पर चढ़ते-चढ़ते ज़रूरतमंदों की कमर झुक जाती है” (पृ. 110) 

जिस समय में हम जी रहे हैं, उसे हाहाकार का समय घोषित करते हुए कवि कहते हैं:

“यह हाहाकार का समय है
जहाँ कुछ भी मनुष्य के पक्ष में घटित नहीं हो रहा है।” (पृ. 110) 

‘वरवर राव एक मशाल हैं’ कविता में जुझारू कवि की चेतना को अभिव्यक्ति दी गई है। कवि के अनुसार कविता अत्याचार और शोषण की पराकाष्ठा पर क्रूरता के विरुद्ध क्रांति का उद्घोष करती है, जिसे सत्ता में क़ाबिज़ हर व्यक्ति क़ैद कर देना चाहता है, लेकिन उनकी कविता में खिले क्रांतिकारी लाल फूलों से सत्ता की जड़ें हिलने लगती हैं:

“वरवर राव एक क्रांति की आवाज़ है
जिसके जनमानस में उतरते ही 
हवा में असंख्य मुट्ठियाँ लहराने लगती हैं 
और क्रूर सत्ता की चूलें हिलने लगती हैं” (पृ. 111) 

‘भीतर का देश’ कविता संग्रह में कवि ने अपने विचारों को व्यक्त करते हुए समाज में चेतना जागृत करने का प्रयास किया है। इन कविताओं का पठन एक ओर जहाँ विचारशीलता की गहराई में ले जाता है वहीं संवेदनाओं से आप्लावित भी करता है। व्याकरण की दृष्टि से देखा जाए तो समीक्ष्य संग्रह में कहीं-कहीं मात्राओं की अशुद्धि देखने को मिलती है। जैसे ‘जीवन की डगर पर अँधेरा एक गुफा है’ (पृ. 43) पंक्ति में ‘अँधेरा’ की जगह पर ‘अंधेरी’ शब्द ज़्यादा उचित लगता है जिससे कविता में धाराप्रवाह बना रहता। शायद यह प्रूफ़ संबंधी ग़लती है। ‘विदा के वक्त’ कविता की तीसरी पंक्ति ‘पेड़ों की फुगनियों पर’ में फुगनियों शब्द भाषाई दृष्टि से अशुद्ध है। लेकिन शब्द संबंधी ये अशुद्धियाँ कविता के भाव को अवरुद्ध नहीं करती हैं, क्योंकि उनकी कविताएँ इतनी संवेदनशील एवं सशक्त हैं कि ये अशुद्धियाँ कविता के प्रतिपाद्य पर प्रभाव नहीं डालती हैं। 

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि रमेश प्रजापति के अंदर जहाँ सामाजिक यथार्थ को समझने की अंतर्दृष्टि है, वहीं जनवादी राजनीतिक परिदृश्य का निरीक्षण कर उसकी प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति देने की क्षमता भी हैं। कुछ सामान्य और कुछ गहन संवेदना से आप्लावित कविताओं का यह संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय है। कविताएँ ज़हां एक ओर संवेदनशील समाज को अपने भविष्य निर्माण हेतु सचेत करती हैं, वहीं जनवादी उजास की ढिबरी भी जलाती हैं। इनकी ज़्यादातर कविताएँ निराशा में भी उम्मीद का उजास भरती दिखाई देती हैं। ‘घर जैसा घर’ कविता में कवि दरवाज़ा को खुला छोड़ने की बात इसलिए करते हैं, क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि नई सुबह का सूरज अपनी जगमगाती किरणों से दुखों से भरे अँधेरे का चेहरा प्रकाशित कर देगा:

“फिर भी मैंने खुला छोड़ दिया दरवाज़ा
इस उम्मीद में कि नयी सुबह का सूरज 
अपनी झिलमिल किरणों से 
जगमग कर देगा
दुखों से भरे अँधेरे का चेहरा” (पृ. 87) 

रमेश प्रजापति जी को इस संग्रह हेतु हार्दिक बधाई एवं असीम शुभकामनाएँ। उनकी लेखनी का लाल उजास धरा पर फैलकर, जनवादी चेतना का प्रकाश बिखेरता रहे। 

— डॉ. ममता पंत 

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