पथरीला वुजूद
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ममता पंत15 Sep 2022 (अंक: 213, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
साँचा
जाति
धर्म
रीति
संस्कार
औ' मर्यादाओं का
जिसमें सीमित कर दी गई पीढ़ियाँ
क़त्ल कर दिए गए वे
जो ना हुए साँचे में फ़िट
अमिट रेखाएँ
जाति धर्म की
हो जाना था जिन्हें
असत् अब तक
बढ़ रही हैं निरंतर
अमर बेल सदृश
लपेट रही हैं
अतुंद, असहाय को
अपनी निरंकुश लताओं से
अन्याय विजयी हो
करता है अट्टाहास
औ' न्याय!
घुटते-घुटते
तोड़ देता है दम
संकट अस्तित्व का
औ' तमाम मायूसियाँ
घेरती हैं
घनघोर घटा सदृश
डराती हैं चमचमाकर
पर जो बुझा नहीं
एक दिया आस का
बाक़ी है अब तक
उसकी किरण
झिलमिलाते हुए
अपने वुजूद को
रखेगी ज़िन्दा
हाँ; शेष है अभी मानवीयता
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