विडम्बना कैसी ये!
काव्य साहित्य | कविता डॉ. ममता पंत15 Nov 2022 (अंक: 217, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
गली, मोहल्लों, सड़कों पर
डोलता वह बचपन
न माँ का ममत्व
न पिता का साया
हाय रे चितेरे
कैसी निष्ठुर तेरी माया!
होनी थी सुशोभित जिन करों में
पोथियाँ ज्ञानार्जन की
बीनते कूड़े का ढेर वे
हाय रे चितेरे
विडम्बना कैसी ये!
गेट पर पाठशाला के
टकटकी लगाए निहारते वे
ककहरा पढ़ते
खेलते बचपन को
देख उनमें अपना ही साया
सामने सपनों की दुनिया!
भूख के कीड़े
कुलबुलाते जब
तब बिखरता सपना
भूखे ही रह जाते वे
हाय रे चितेरे
विडम्बना कैसी ये!
फटे चीथड़े देह पर
मलिन-मुख, निस्तेज-नयन
बहती अश्रुधार
न कोई पालनहार!
कोमल काया
दुपहरी में जेठ की
झुलसती निरंतर
औ' विकल भूख पेट की
सताती आभ्यंतर
हे चितेरे!
तुम कहलाते
दया के सागर
पालनहार
दिखती नहीं तुम्हें
बेबस सी रचना
उनकी पीड़ा . . .
सुना है
तुम हो माहिर
रचने में लीला
पर कैसी?
जब कृति तुम्हारी
दर-दर भटकने को है मजबूर!
हाय रे चितेरे
विडम्बना कैसी ये!
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