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सुशीला श्रीवास्तव - मुक्तक - माँ


1.
बचपन मेंं जब रुठा करती मुझको बहला देती थीं
नीलगगन का चाँद धरा पर भी, अक्सर ला देती थीं
पाठ पढ़ाया जीवन का, चलना भी मुझको सिखलाया
जब भी लगती चोट मुझे, माँ सर को सहला देती थीं। 
 
2.
मांँ की ममता के आँचल में, मुझको मिलता प्यार बहुत
सच है जीवन की ख़ुशियों में, माँ का है आधार बहुत
माँ! डाँटे या मारे मुझको, है उनका अधिकार बहुत। 
 
3.
जब प्यार लुटाये हर पल वो, लगती मुझको प्यारी हैं
सच कहती हूँ उनकी मूरत, लगती मुझको न्यारी है, 
नाप सका कब कब कोई भी, ममता की गहराई को
माँ! की ममता पर तो जानों, दुनिया भी बलिहारी है। 
 
4.
करती थीं रखवाली मेरी लेकिन जान सकी कब मैं
बीत गया जीवन का वो पल, बरबस याद करूँ अब मैं
रंग बदलती दुनिया की माँ! बतलाती थीं चतुराई
दुख मेंं साहस भर देती थीं, संकट मेंं घिरती जब मैं। 

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टिप्पणियाँ

anupriya 2024/04/20 01:58 PM

bahut Badhiya

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