अँधियारे के पार
काव्य साहित्य | कविता सुशीला श्रीवास्तव15 Nov 2025 (अंक: 288, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
जब घनघोर अँधेरा छाता है
ग़म का बादल मँडराता है
मन का दीपक बुझने लगता
आशा का रंग उतर जाता है।
किरणें सूरज की आती हैं
उम्मीद नयी दे जाती हैं
ये कठिन घड़ी टल जायेगी
मानो रोज़ हमें बताती हैं।
दुख के साये लाख घनेरे
पर चहके चिड़िया रोज़ सवेरे
समय का पहिया चलता रहता
हो चाहे जीवन में अँधेरे।
मन में धीरज रखना बन्दे
तकलीफ़ों से न डरना बन्दे
घिस-घिस कर ही हीरा चमके
कंचन-सा ही तपना बन्दे।
सुख के मोती तम के पार
थोड़ा करना जीवन में इंतज़ार
मिल जाता है सब कुछ जग में
क्यों समझे ख़ुद को लाचार।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
गीत-नवगीत
ग़ज़ल
- आज महफ़िल में मिलते न तुम तो
- जहाँ कहीं समर हुआ
- ज़रा रुख से अपने हटाओ नक़ाब
- टूटे दिलों की, बातें न करना
- तुम्हारी याद में हम रोज़ मरते हैं
- नहीं प्यार होगा कभी ये कम, मेरे साथ चल
- बच्चे गये विदेश कि गुलज़ार हो गए
- बेचैन रहता है यहाँ हर आदमी
- मुझको वफ़ा की राह में, ख़ुशियाँ मिलीं कहीं नहीं
- मुझे प्यार कोई न कर सका
दोहे
कहानी
कविता-मुक्तक
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं