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कुण्डलियाँ - त्रिलोक सिंह ठकुरेला - 2

रत्नाकर सबके लिए, होता एक समान।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान॥
सीप चुने नादान,अज्ञ मूँगे पर मरता।
जिसकी जैसी चाह,इकट्ठा वैसा करता।
'ठकुरेला' कविराय, सभी ख़ुश इच्छित पाकर।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर॥

 
आगे बढ़ता साहसी, हार मिले या हार।
नयी ऊर्जा से भरे, बार बार, हर बार ॥
बार बार, हर बार, विघ्न से कभी न डरता।
खाई हो कि पहाड़, न पथ में चिंता करता। 
'ठकुरेला' कविराय, विजय-रथ पर जब चढ़ता।
हों बाधायें लाख, साहसी आगे बढ़ता॥


थोथी बातों से कभी, जीते गये न युद्ध।
कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्ध॥
करनी करते बुद्ध, नया इतिहास रचाते।
करते नित नव खोज, अमर जग में हो जाते।
'ठकुरेला' कविराय, सिखातीं सारी पोथी।
ज्यों ऊसर में बीज, वृथा हैं बातें थोथी॥

 

चलते चलते एक दिन, तट पर लगती नाव। 
मिल जाता है सब उसे, हो जिसके मन चाव॥
हो जिसके मन चाव, कोशिशें सफल करातीं।
लगे रहो अविराम, सभी निधि दौड़ी आतीं।
'ठकुरेला' कविराय, आलसी निज कर मलते।
पा लेते गंतव्य, सुधीजन चलते चलते॥ 

नहीं समझता मंदमति, समझाओ सौ बार।
मूरख से पाला पड़े, चुप रहने में सार॥
चुप रहने में सार, कठिन इनको समझाना।
जब भी ज़िद लें ठान, हारता सकल ज़माना।
'ठकुरेला' कविराय, समय का डंडा बजता।
करो कोशिशें लाख, मंदमति नहीं समझता॥

 

धीरे धीरे समय ही, भर देता है घाव। 
मंज़िल पर जा पहुँचती, डगमग होती नाव॥
डगमग होती नाव, अंततः मिले किनारा। 
मन की मिटती पीर, टूटती तम की कारा।
'ठकुरेला' कविराय, ख़ुशी के बजें मजीरे।
धीरज रखिये मीत, मिले सब धीरे धीरे॥

 

तिनका तिनका जोड़कर, बन जाता है नीड़।
अगर मिले नेत्तृत्व तो, ताक़त बनती भीड़॥
ताक़त बनती भीड़, नये इतिहास रचाती। 
जग को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक, बाती॥
'ठकुरेला' कविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका।
रचते श्रेष्ठ विधान, मिले सोना या तिनका॥ 


बढ़ता जाता जगत में, हर दिन उसका मान।
सदा कसौटी पर खरा, रहता जो इंसान॥ 
रहता जो इंसान, मोद सबके मन भरता। 
रखे न मन में लोभ, न अनुचित बातें करता।
'ठकुरेला' कविराय, कीर्ति-किरणों पर चढ़ता।
बनकर जो निष्काम, पराये हित में बढ़ता॥ 

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