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उगाने होंगे अनगिन पेड़

मत काटो तुम ये पेड़
हैं ये लज्जावसन
इस माँ वसुन्धरा के।
इस संहार के बाद
अशोक की तरह
सचमुच तुम बहुत पछाताओगे; 
बोलो फिर किसकी गोद में
सिर छिपाओगे? 
शीतल छाया
फिर कहाँ से पाओगे ? 
कहाँ से पाओगे फिर फल? 
कहाँ से मिलेगा? 
सस्य श्यामला को 
सींचने वाला जल? 
रेगिस्तानों में
तब्दील हो जाएँगे खेत
बरसेंगे कहाँ से 
उमड़-घुमड़कर बादल? 
थके हुए मुसाफ़िर
पाएँगे कहाँ से
श्रमहारी छाया? 
पेड़ों की हत्या करने से 
हरियाली के दुश्मनों को
कब सुख मिल पाया? 
यदि चाहते हो –
आसमान से कम बरसे आग
अधिक बरसें बादल, 
खेत न बनें मरुस्थल, 
ढकना होगा वसुधा का तन
तभी कम होगी
गाँव–नगर की तपन।
उगाने होंगे अनगिन पेड़
बचाने होंगे
दिन-रात कटते हरे-भरे वन।
तभी हर डाल फूलों से महकेगी
फलों से लदकर
नववधू की गर्दन की तरह
झुक जाएगी
नदियाँ खेतों को सींचेंगी
सोना बरसाएँगी
दाना चुगने की होड़ में
चिरैया चहकेगी
अम्बर में उड़कर
हरियाली के गीत गाएगी

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