अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

भरोसा

कॉलेज से आते समय कुछ फल खरीद के घर की ओर जल्दी से चल दी सोच रही थी आज घर जा के आराम करूँगी। पर लगा पेट कुछ माँग रहा है बहुत जोर से भूख लगी थी । अभी ख़ुद ही कुछ बनाना पड़ेगा। काश माँ यहाँ होती तो कितना अच्छा होता बना-बनया खाना मिलता। अभी दो महीने हुए थे गोरखपुर आए हुए यहाँ वैसे तो सब अच्छा था पर माँ नहीं थी क्यों की माँ लखनऊ से आ नहीं सकती थी वहाँ पे पापा और रिया का ध्यान कौन रखता।

 इसी सब उधेड़ बुन में कॉलेज से घर कब पहुँच गई पता भी न चला। ताला खोल घर में घुसते ही खाने को कल की सब्जी और चावल निकाले और गरम कर जो खाने बैठी ही थी की फ़ोन की घंटी बजी,

“हेल्लो मैं प्रिया बोल रही हूँ मिस पांडेय मैं एक हफ्ते नहीं आ पाऊँगी मेरी मौसी की शादी है।“

प्रिया मेरे पास मैथ पढ़ने आती थी। मैंने कहा, “अच्छा, बधाई हो ये तो बहुत ही अच्छी बात है कहाँ हो रही है, किस से हो रही है” हालाँकि मुझे इन बातों में ज्यादा रुची नहीं थी पर प्रिया की खुशी देख के पूछना पड़ा। वो बोली, ”मिस मेरे होने वाले मौसा जी अमेरिका में रहते हैं। सौफ़्टवेयर इंजीनियर हैं देखने में भी बहुत सुंदर हैं।“

अमेरिका, ये शब्द। मुझे अच्छा नहीं लगता था। सुनते ही इसे मन उदास होने लगा मैं उसकी बात पे बस हाँ हूँ करती रही, पर वो क्या बोल रही थी मालूम नहीं। बाद में उसने कहा नमस्ते मैंने भी नमस्ते। कह के फ़ोन रख दिया।

पता नहीं क्यों प्रिया की मौसी की शादी बात सुन के मैं उसी के बारे में सोचे जा रही थी भूख तो मानो मर सी गई थी। वही अमेरिका, वही सौफ़्टवेयर इंजीनियर कहीं न कहीं मैं अपने आप से इसको जोड़ने लगी थ॥ जो मेरे साथ हुआ वो मेरे साथ ही क्यों होना था। आखिर क्या थी गलती मेरी। कैसे भूल सकती थी मैं उस समय को अक्टूबर के उस महीने को। घर में माँ पापा बहन सभी बहुत खुश थे। इतना अच्छा रिश्ता जो घर बैठे मिल गया था। सभी कहते थे हमारी भावना कितनी किस्मत वाली है जो उसे इतना अच्छा रिश्ता मिला। बुआ तो सब से कहती न थकती थी, “ अरे अभिषेक नाम है लड़के का; अमेरिका में रहता है, काफी पैसा वाले हैं और देखने में तो काम देव है। चिराग ले के ढूँढो तो भी ऐसा लड़का नहीं मिलता। बड़ी ही खुश रहेगी भावना वहाँ पे!”

जितने लोग भी आते तारीफ़ ही करते। सभी की बातों से मुझे भी बहुत अच्छा लगता था। और मन ही मन बहुत खुश भी होती। मेरी एक दो बार फ़ोन पे उस से बात भी हुई थी। मन मयूर बिन बादल खुशियों से नाचने लगा था। पता नहीं क्यों बार-बार ये गाना मेरे मन में आता था, “ओ मेरे सपनों के सैदागर मुझे ऐसी जगह ले जाओ प्यार ही प्यार हो जिस जगह ..........।“ उफ़ मैं तो पागल ही हुई जाती थी।

दिसम्बर में शादी थी तो समय कम होने की वजह से जल्दी ही शादी की तैयारी होने लगी थी। घर मानो खुशियों की महक से भर गया था। हर ओर गहमा-गहमी थी। रिश्तेदारों का आना भी शुरू भी हो गया था। बच्चे पूरे घर में दौड़ भाग कर रहे थे। ढोलक बज रही थी। बन्ना बन्नी गए जा रहे थे। "बाबा की दुलारी बन्नी, पापा की दुलारी बन्नी, छोड़ बाबुल का आँगन जा री जा री बन्नी”। मैं भी अपनी तैयारी में लगी थी। बाजार जाना समान ला के पैक करना, मैचिंग चूड़ियाँ, बिंदी, नेल पोलिश। खोजते खोजते न जाने कब शाम हो जाती पता ही न चलता। मेरी बहन रिया साथ में अपनी भी तैयारी करती रहती। वो तो सब से ज़्यादा खुश थी।

और फिर आ गई वो शाम जिसका हमें भी सब के साथ बेसब्री से इंतजार था। खूब धूम रही शादी में रिया का तो मानो पैर ज़मीं पे नहीं पड़ रहा था। जूते चुराने में उसने बहुत मेहनत की थी। फिर जो मस्ती हुई उसको आज तक मैं नहीं भूली। पूरी शादी आराम से बीत गई।
विदाई का समय आया तो मैं जो हमेशा सोचती थी की क्या रोना-धोना बिदाई में - वो आज ज़ार ज़ार रो रही थी। लाख रोकने पे भी आँसू रुक नहीं रहे थे। लग रहा था अंदर ही अंदर कुछ पिघल सा रहा था और आँसुओं के साथ बहता जा रहा था। अपना घर छोड़ के जाने का दर्द आज मालूम हुआ। माँ पापा और रिया, यही तो छोटी सी हमारी दुनिया थी। आज इन सभी को छोड़ के जाने में दिल फटा जा रहा था। मानो बस बैठा ही जा रहा था ये दिल। शब्द गले में अटक के रह गया थे फ़िज़ाओं में गाना गूँज रहा था, “बाबुल की दुआएँ लेती जा। ..............”। अपना घर छोड़, आँखों में हज़ार सपने लिए, दिल में रंगीन अरमान सजाये हुए मैं अभिषेक के घर के लिए चल दी थी।

पूरे रास्ते इन्होंने मुझसे बात नहीं की जबकि रास्ता पूरे ७ घंटे का था। बस एक जगह पूछा चाय को जब सभी रुके थे चाय पीने को। घर में हमारे स्वागत की पूरे जोर-शोर से तैयारी की गई थी। हमारी आरती उतारी गई, रंगो भरी थाली में पैर डाल के घर के अंदर आ गई। पता नहीं ये क्यों करते हैं ये सब मैं हमेशा सोचती थी। पर यहाँ तो कुछ कह सकती नहीं थी। घर में बहुत भीड़ थी। सभी बहुत खुश थे अभिषेक के दोस्त उस को बहुत चिढ़ा रहे थे। कोई कह रहा था “यार बहुत बचने की कोशिश की पर फिर भी फँस ही गए शादी के चक्कर में”। दोस्तों का मजाक यूँ ही जारी था।

तभी अभिषेक की माँ ने आ के कहा की चलो, “बहू थोड़ा आराम कर लो। कल जल्दी उठना है अभिषेक को। कल जाना है।“

मैंने पूछा, “माँ जी क्या कल ही चले जायेंगे।“ तो वो बोली "हाँ" बस यह कह के मुझे कमरे मी छोड़ के चली गई। मैं कमरे में अकेली रह गई। आपने विचारों के साथ। थक तो बहुत गई थी पास रखी कुर्सी पे निढाल सी बैठ गई। नज़र गई कमरे पे तो देखा की कमरा बहुत सुंदर सजा था। बेले और गुलाब के फूलों से पूरा कमरा भरा था। फूलों की महक वातावरण को बहुत की खुशनुमा बना रही थी। करीब २ घंटे बाद अभिषेक के कदमों की आहट आई। दिल जोरों से धड़कने लगा। दरवाज़ा खुला और अभिषेक अंदर आए। आते ही बोले, "अरे तुम अभी सोई नहीं मुझे तो बहुत नींद आ रही है। मैं तो सोने लगा हूँ कल जाना भी है।“ पूरे रास्ते के बाद यही बात थी जो हमारे बीच हो रही थी। मैं ने धीरे से कहा, "अभिषेक क्या तुम कल ही चले जाओगे।“

"हाँ", संक्षिप्त सा उत्तर था उनका।

"फिर मैं क्या क्या करूँगी" मैंने कहा था। उन्होंने मेरी ओर देखा और कहा, "देखो मैंने अभी-अभी नई कम्पनी ज्वाइन की है, नया शहर है, मैं थोड़ा सटेल हो जाऊँ फिर तुम्हारे पेपर भी अभी नहीं आए हैं। मैं जा के उसका भी इंतज़ाम करता हूँ फिर तुम को बुला लूँगा।यही कोई २ या ३ महीने लगेंगे। मैं चाहता हूँ की जब तुम वहाँ आओ तो तुम को कोई परेशानी न हो।" मैं चुप चाप अभिषेक को सुन रही थी। कहती भी तो क्या? सब कुछ तो अभिषेक ने पहले से ही सोच रखा था। “तुम अभी जानती नहीं अमेरिका में सब कुछ इतना आसान नहीं है, तुम अभी सो जाओ।“ और ख़ुद मुहँ फेर के सो गए।

मुझे तो नींद नहीं आ रही थी। ये सब मुझे पहले क्यों नहीं बताया गया। इस में छुपाने जैसा क्या था। मैं क्या करुँगी इनके जाने के बाद। इसी सब उधेड़-बुन में कब नीद आ गई पता न चला।
सुबह माँ जी की आवाज़ से नींद कहीं खुली। देखा की ये उठ चुके हैं और शायद तैयार हो के बाहर भी चले गए थे। मूड ख़राब हो गया। मुझे उठा नहीं सकते थे। मैं जल्दी जल्दी उठके फ्रेश हो के बाहर आ गई। बाहर आके देखा की ये नाश्ता कर रहे थे। मैंने माँ जी और पिता जी के पैर छुए और फिर माँ जी के साथ रसोई मैं आ गई। माँ ने मना किया बोली “जा के जल्दी से नाश्ता कर लो। चलना है अभिषेक को एयर पोर्ट छोड़ने।“ अभिषेक का समान तो पहले से ही पैक हो चुका था । हम सभी चल दिए इनको छोड़ने। मैं इनके साथ ही बैठी थी पर लग रहा था की हज़ारों मील के फासले पे बैठी हूँ, मैंने ही मौन तोड़ा – बोली, "पहुँच के फ़ोन करियेगा।" हूँ.. कर दूँगा।" बस यही कहा और फिर वही चुप्पी।

“मैं आप को मिस करूँगी, क्या आप को मेरी याद आएगी?"

“हाँ आएगी।“ अभिषेक बोले। इन्ही थोड़ी बहुत बातों में कब एअरपोर्ट आ गया पता भी न चला। वहाँ पे पहुँच के इन्होने माँ पापा की पैर छुए। और मुझे एक उड़ती नज़र से देखा और आगे चले गए।

मैं मन ही मन रो रही थी क्या यही शादी है? जिसे जाना था वो चला गया। हम सभी वापस आ गए। घर जो कल बहुत भरा लग रहा था आज अचानक खली लग रहा था।

 माँजी बहुत अच्छी थीं। मेरा बहुत ध्यान रखती थीं। कभी मुझे अकेला नहीं छोड़ती थीं। बस इसी तरह दिन बीतने लगे। समय हफ्तों में हफ्ते महीनों में बीतने लगे। कभी-कभी अभिषेक का फ़ोन आता। बात भी होती पर जिस आत्मीयता की मैं उनमें तलाश करती वो मुझे कभी नहीं मिली। और मुझे ले जाने के बारे में कभी कोई बात नहीं होती। माँजी के बहुत कहने पे वीसा के लिए पेपर तो भेज दिए पर आने के बारे में कुछ भी नहीं कहा। अब तो मैंने पूछना भी बंद कर दिया था। मैं अपनी माँ के पास आ गई। यहाँ कभी-कभी अभिषेक का फ़ोन आ जाता। उनके वादों और बातों पे भरोसा करते करते २ साल बीत गए।

अब सभी को चिन्ता होने लगी थी। सासू माँ को भी दुःख था पर अपना बेटा था कहती भी तो क्या?

दोनों घर वालों ने सोचा कि क्यों न भावना को ही वहाँ भेज दिया जाए। मेरे लिए टिकट आ गया। मैं अंदर ही अंदर खुश तो हुई पर डर भी रही थी की पता नहीं अभिषेक मेरे साथ कैसा व्यवहार करेंगे।

मैं पहली बार प्लेन मैं बैठी थी पर मेरी भावनाओं को बाँटने वाला कोई न था। मैं ख़ामोश बैठी केवल अभिषेक के बारे में सोच रही थी। कैसे मिलेंगे क्या कहेंगे देख के खुश होंगे या नहीं। और न जाने क्या-क्या। मन शंकाओं आशंकाओं में झूलता रहा। इतनी लम्बी दूरी मेरी सोचों से छोटी निकली। अमेरिका आ गया पर मेरे सोचों का सिलसिला ख़त्म नहीं हुआ। प्लेन से उतर के अपना समान ले के जब बाहर आई तो नज़रें अभिषेक को खोज रही थीं। लेकिन अभिषेक तो कहीं नज़र नहीं आ रहे थे। तभी मेरे नाम का एक बोर्ड दिखा- भावना। गई तो देखा की एक आदमी जिसे मैं जानती भी नहीं खड़ा था। उस ने कहा, "हेल्लो, आर यू भावना?"

"यस" मैंने कहा।

“आइ ऐम अजय, आइ ऐम अभिषेक 'स फेरेंड। वो थोड़ा व्यस्त है, इसीलिए मुझे आप को घर ले जाने को भेजा है।” मन हुआ की अभी लौट जाऊँ पर फिर आपने आप को समझाया कि सच में ही कोई काम आगया होगा ।

मैं अजय के साथ घर को चल पड़ी। बाहर निकल के शहर देखा बहुत ही अच्छा था साफ-सुथरा बड़ा सा। रात हो चुकी थी शहर बिजली की रोशनी में नहा रहा था। हर ओर गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ। माँ होती तो डरती क्यों कि उनको ज़्यादा दौड़ती भागती गाड़ियों से डर लगता था। दो कतार में जाती गाड़ियाँ एक तरफ़ से जाती एक तरफ़ से आती। सब अपनी कतार में चल रही थी पर गति बहुत थी। जिस लेन में मैं जा रही थी उसमें गाड़ी के पीछे जलती लाल लाइट ऐसा लग रहा था लाल रंग का कोई दरिया बह रहा था। और दूसरी ओर से आती गाड़ियों की सफ़ेद लाइट लगता था की दूधिया नदी एक निश्चित गति से चली आ रही है। सब कुछ मेरे लिए नया था। होरन की आवाज तो सुनाई ही नहीं दे रही थी। वहाँ अपने देश में तो पों पों उफ़ कान ही फट जाते हैं।

“आइये घर आ गया” की आवाज़ से मेरी सोच की गति को विराम लगा। देखा तो अच्छा ख़ासा बड़ा घर था। घर में जा के तो और भी अच्छा लगा। पूरा घर साफ-सुथरा सजा हुआ था। अपने घर से अलग था। पूरे घर में कारपेट बिछा था। मैं तो घर ही देखने मैं लग गई माइक्रोवेव, ओवेन सब था यहाँ। अजय ने बताया कि कपड़े धोने की बाद सुखाने की भी मशीन थी। जो मैंने पहली बार देखी थी। सब कुछ अच्छा था बस। .............. अजय ने मेरे खाने का कुछ समान रखा था बोला आप खा के आराम करिये और वो चला गया।

खाने की कोई खास इच्छा नहीं थी तो थोड़ा बहुत खा के सो गई। पता नहीं कितनी देर सोती रही। नींद खुली कुछ खटर-पटर से। उठ के देखा तो अभिषेक थे। देख के ऐसा लगा की गले लग जाऊँ इतने सालों के दुःख दर्द सुनाऊँ, शिकायत करूँ, न आने का कारण पूछूँ। पर इन्होंने बहुत ही ठंडे स्वर में कहा, "रास्ते में कोई परेशानी तो नहीं हुई? सॉरी कि मैं आ नहीं सका। तुम थकी होगी सो जा।"

मेरा मन उनसे बात करने का था, लेकिन कुछ कह न सकी सिवाए इस के कि माँ जी और पिता जी आप को बहुत याद करते हैं। पर अभिषेक ने कुछ कहा नहीं बस फ्रेश होने चले गए। आ के बोले, "देखो मुझे २ दिनों के लिए बाहर जाना है। बहुत ज़रूरी काम है तुम यहाँ आराम से रहो। अजय तुम को घुमा फिरा देगा।“ मैं ख़ामोश निगाहों से इनको देखती रह गई। फिर माँ ने जो बेसन के लड्डू दिए थे इन की ओर कर दिए। उसमें से एक लड्डू ले के खा लिया और सो गए। पर मेरी आँखों मैं नींद कहाँ थी? मैं सोच रही थी कि आखिर बात क्या है ये मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं? कुछ खुल के बोलते भी नहीं, इसी उधेड़-बुन में कब सो गई पता भी न चला।

सुबह नींद खुली तो देखा अभिषेक अभी सो रहे थे। मैं फरेश हो के चाय बनाने लगी। माँ ने बताया था की अभिषेक को बेड टी की आदत थी। चाय ले के आई तो अभिषेक उठ चुके थे। चाय ले के बोले कि थैंक्स। चाय पीने के बाद ये फरेश होने चले गए। तैयार हो के बोले, “जाता हूँ आ के मिलता हूँ”।  मैं कुछ कह पाती; इससे पहले अभिषेक चले गए। अनजाना देश अजनबी लोग मैं करूँ भी तो करूँ क्या? मैं अपनी चाय खतम कर के उठी ही थी कि दस्तक हुई। देखा तो अजय था। उसने कहा भावना जी जल्दी से तैयार हो जाइये चलिए आप को घुमा के लाता हूँ। मन तो था नहीं पर सोचा घर रही तो सिवए सोचने के कुछ नहीं करूँगी। सो मन मार के तैयार हो के अजय के साथ चली गई। डल्लास शहर बहुत सुंदर था। गगन को छूती इमारत शायद अपने बड़े होने का अहसास करा रही थी। डाउन टाउन तो बहुत ही सुंदर था वो जगह देखी जहाँ पे कनेडी को गोली मारी गई थी। अजय बड़े मन से सब दिखा रहा था पर जब अंदर से दिल उदास हो तो सब कुछ उदास ही लगता है। अजय ने पूछा, “भावना जी आप को सब कुछ कैसा लग रहा है?"

मैंने कहा, "सब बहुत अच्छा है सुंदर है पर। .................... आप एक बात बताइए की आप अभिषेक के अच्छे दोस्त है न?"

अजय ने कहा, "हाँ हाँ हूँ न।"

“फिर ये बताओ की अभिषेक एसा कौन सा काम करते है कि इनको इतना बाहर जाना पड़ता है सॉफ्टवेयेर में ही तो हैं न ?" मैंने पूछा।

"हाँ स्नेह जी ऐसा ही है पर काम बहुत रहता है।“ अजय ने कुछ टालने वाले अंदाज में कहा। बात कही भी और छुपाई भी। फिर मैंने और कुछ नहीं पूछा क्यों की जब अपना ही बेगाना बना हो तो दूसरों से क्या उम्मीद करना। घूमते घूमते शाम हो गई अजय मुझे घर छोड़ के चला गया।

फिर तो ये सिलसिला ही हो गया। अभिषेक का कभी कोई दोस्त आता कभी कोई। मुझे घुमाता मेरा ख्याल रखता। इसी तरह २ महीने बीत गए। मेरे अंदर इतने सवाल पैदा हो चुके थे की सब फट के बस बाहर आना चाहते थे। क्या मैं इतनी दूर इनके दोस्तों के साथ घूमने आई थी? क्या हफ्ते-हफ्ते भर अभिषेक का इंतज़ार करने आई थी? इनकी इसी बेरुख़ी के लिए इतने साल इनके नाम की माला जपी थी मैंने? मन ही मन सोचा की अब कि यदि अभिषेक आएँगे तो पूछूँगी ज़रूर कि ये सब क्या है? आखिर ये माजरा क्या है? ३-४ दिन बाद अभिषेक आए मैं तो भरी बैठी थी। आते ही सवालों की बौछार कर दी, “ क्या है ये बोलो? क्यों कर रहें हैं आप मेरे साथ ऐसा? यदि यही सब करना था तो मुझसे शादी क्यों की? मेरा जीवन बरबाद क्यों किया?"

पहले तो अभिषेक चुप-चाप सुनते रहे फिर बोले, "देखो यहाँ अमेरिका में रहना इतना आसान नहीं है मैं ग्रीन कार्ड पाना चाहता था ताकि जीवन कुछ आसान हो जाए मैंने बहुत कोशिश भी की पर सफल न हो सका। ग्रीन कार्ड पाने का सब से आसान तरीका था कि मैं यहाँ की किसी लड़की से जो नागरिक हो अमेरिका की शादी कर लूँ और मैंने वही किया। अब मुझे उसके ही साथ रहना है जब तक मुझे ग्रीन कार्ड न मिल जाए। जब ऐसा हो जाएगा तो मैं उसको तलाक़ दे दूँगा और हम आराम से रहेंगे।"

ये सब सुन के तो मेरे पैरों तले से ज़मीन निकल गई। मैं अवाक रह गई, जहाँ खड़ी थी वहीं बैठ गई। कोई इन्सान इतना गिर सकता है अपने लाभ के लिए कुछ भी कर सकता है किसी के जीवन से भी खिलवाड़ कर सकता है! अभी मेरा जीवन बरबाद किया अब उस बेचारी का भी जीवन बरबाद कर देगा। ऐसा करने से पहले क्या एक बार भी हमारे बारे में नहीं सोचा कि क्या बीतेगी हम पे जब सब पता चलेगा? सोचा तो केवल अपने बारे में!

मेरी तंद्रा भंग हुई तो देखा की अभिषेक मेरे कंधे पे हाथ रख के कह रहे थे, "भावना देखो अब बस थोड़े दिनों की बात है सब ठीक हो जाएगा। हम फिर हम आराम से रहेंगे।"

मैंने कंधे से अभिषेक का हाथ हटाते हुए कहा, ”नाम क्या है उसका?

"कैलसी "इन् ने कहा।

मैंने अपने अंदर के सारे तूफ़ान को समेटते हुए कहा, "देखो कैलसी को तो मालूम नहीं होगा कि तुम्हारी शादी हो चुकी है। इसलिए उसने प्यार किया और शादी की। अब तुम उस निर्दोष लड़की को तलाक़ देना चाहते हो। पर ये मुझे मंजूर नहीं। तुम अपनी संस्कृति अपनी सभ्यता भूल चुके हो मैं नहीं, मैं उसका घर सब कुछ जान के बरबाद नहीं कर सकती। एक औरत हो के मैं दूसरी औरत के दुःख का कारण नहीं बनना चाहती। तुम उसी के साथ रहो मैं जैसे-तैसे जी लूँगी पर मैं तुम को कभी भी माफ़ नहीं कर पाऊँगी। क्योंकि तुम ने मेरे साथ-साथ मेरे माँ पिता जी को भी जीवन भर का दुःख दिया है।" इतना कहने के बाद मैं हाँफ रही थी अभिषेक ने मुझे तरह तरह से समझाने की बहुत कोशिश की, रोकने की भी कोशिश की पर मैं वहाँ से दो दिन में वापस आ गई।

रस्ते भर पता नहीं क्यों "दुश्मन न करे दोस्त ने जो काम किया है उम्र भर का दर्द हमें इनाम दिया है" यही गाना मेरे दिमाग मैं घूमता रहा।

घर पे जब सब को असलियत का पता चल तो सभी बहुत दुखी हुए। पर कर भी क्या सकते थे। थोड़े दिनों में मुझे गोरखपुर के एक कॉलेज में नौकरी मिल गई। मैं यहाँ आ गई और अपना जीवन पुनः जीने लगी।  अपना दर्द इन बच्चों में भूल गई। साल भर बाद ही हमारा तलाक़ हो गया।

 अपनी यादों के घेरे से निकली तो रात बहुत हो चुकी थी लाइट भी नहीं जलाई थी उठ के लाइट जलाई। और कॉलेज का काम करने लगी। काम ख़त्म हुआ तो खाना बनाया और खा के सो गई।

सुबह वही रोज़ का काम शुरू हो गया। चाय पी के लंच ले के जल्दी-जल्दी कॉलेज पहुँची। अपने दो लेक्चर के बाद मैं क्लास से निकल रही थी की प्रिया भागती हुई मेरे पास आई बोली, "मिस ये कार्ड है। मौसी की शादी का आप जरूर आइएगा।“

“ओ के मैं आऊँगी" कह के कार्ड ले के मैं स्टाफ रूम में आ के बैठ गई। कार्ड खोल के देखा तो अवाक्‌ रह गई लिखा था -  “नीलम मिश्रा  वेड्‌स  अभिषेक शर्मा”!!

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

बाल साहित्य कविता

बाल साहित्य कहानी

नज़्म

कहानी

स्मृति लेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं