दोहरा जीवन जीते हैं हम
काव्य साहित्य | कविता रचना श्रीवास्तव13 Mar 2014
दोराहे पे
चलते हैं हम
जीवन दोहरा
जीते हैं हम
चाहते हैं क्या
ये जानते नहीं
समय के साथ
चाहतें बदलते हैं
देखो न
हम कितना दोहरा जीवन जीते हैं
विवाह करते हैं
समाज में
प्रतिष्ठा पाने को
माता पिता को
कर्तव्य से मुक्ति दिलाने को
अपने लिए तो
कुछ करते नहीं
देखो न
हम कितना दोहरा जीवन जीते हैं
बच्चे लाते हैं हम
पर
अपनी खुशी पाने को
उनमें
बचपन अपना
दोबारा जीने को
तोतली जुबान को
बोलना सिखाते हैं
जब बोलने लगते हैं वो
तो
ज्यादा बोलते हो
कह के चुप कराते हैं
देखो न
हम कितना दोहरा जीवन जीते हैं
नन्हें कदमों को
हमने ही चलना सिखाया
अब जब वो
दौड़ना चाहते है
हम उन्हें रोकते हैं
भागते भागते दूर गए तो
ख़ुद के पीछे रहने की दुहाई देते हैं
देखो न
हम कितना दोहरा जीवन जीते हैं
पंख होते नहीं
पर हम उगाते हैं
उड़ना आता नहीं
हम सिखाते हैं
और
उड़ान जब वो भरते हैं
उनको
हम लौट आने को कहते हैं
देखो न
हम कितना दोहरा जीवन जीते हैं
वो अपना अलग
आसमान बनते है
उसमें जो
अपनी जगह हम नहीं पाते हैं
हाथ रख के सिर पे
बहुत पछताते हैं
माता पिता होने की
गुहार करते हैं
देखो न
हम कितना दोहरा जीवन जीते हैं
जो बोया
उसे काटना चाहते नहीं
है फसल अपनी ही
पर अपनाते नही
दोष सारा
उनके सिर मढ़ते हैं
देखो न
हम कितना दोहरा जीवन जीते हैं
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अपनों के बीच भी कहाँ सुरक्षित नारी है
- अलविदा
- कल, आज और कल
- दर्द घुटन और औरत
- दुआ
- दोहरा जीवन जीते हैं हम
- नूतन वर्ष
- प्यार को जो देख पाते
- प्रेम बाहर पलेगा
- बटवारा
- बदलना चाहो भी तो
- बुधिया सोचती है
- माँ की कुछ छोटी कवितायें
- मुझ को पंख चाहिए
- मैं कुछ कहना चाहती हूँ
- मौत
- ये कैसी होली है
- विस्फोट
- शरद ऋतु
- शोर
- समीकरण
- हथेली पर सूरज
बाल साहित्य कविता
बाल साहित्य कहानी
नज़्म
कहानी
स्मृति लेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं