मैं कुछ कहना चाहती हूँ
काव्य साहित्य | कविता रचना श्रीवास्तव3 May 2012
मैं कुछ कहना चाहती हूँ
जिह्वा होते गूँगी रही अब तक
पर अब नहीं
अब मैं बोलना चाहती हूँ
मैं कुछ...
घर समाज दुनिया में
किनारे की गई बहुत
हाशिये पे रह के जी ली बहुत
अब मैं मुखय पृष्ठ पे आना चाहती हूँ
मैं कुछ...
सहती रही,
सभी की आज तक
झुका के नजर चलती रही आज तक
इस दुनिया से अब नज़र मिलाना चाहती हूँ
मैं कुछ...
कभी ममता, कभी सिन्दूर की
कसौटी पे कसी गई हमेशा
मातहत की तरह सुनती रही हमेशा
अब अधिकारी बन आदेश सुनना चाहती हूँ
मैं कुछ...
अपनी तरह से,
हर वक्त चलाया हमको
आग में जलाया तो कभी विष पिलाया हम को
माँ दुर्गा बन हर अन्याय से लड़ना चाहती हूँ
मैं कुछ...
देश मे रहें या विदेश में,
छल गया हम को हर परिवेश में
नदी बन संकुचित हो ली बहुत
अब सागर सा विशाल होना चाहती हूँ
मैं कुछ...
जिस समाज जो जन्मा हमने
उस पे क्यों हमारा अधिकार नहीं
अबला प्रिये अब हम को स्वीकार नहीं
महिलाओं के लिए सम्पूर्ण सम्मान चाहती हूँ
मैं कुछ...
साल का एक दिन देके
बाकी सब दिन ले लेते हो
ये कैसी राजनीत करते हो
एक दिन का भुलावा अब नहीं
अब हर दिन पे मैं आपना अधिकार चाहती हूँ
मैं कुछ...
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अपनों के बीच भी कहाँ सुरक्षित नारी है
- अलविदा
- कल, आज और कल
- दर्द घुटन और औरत
- दुआ
- दोहरा जीवन जीते हैं हम
- नूतन वर्ष
- प्यार को जो देख पाते
- प्रेम बाहर पलेगा
- बटवारा
- बदलना चाहो भी तो
- बुधिया सोचती है
- माँ की कुछ छोटी कवितायें
- मुझ को पंख चाहिए
- मैं कुछ कहना चाहती हूँ
- मौत
- ये कैसी होली है
- विस्फोट
- शरद ऋतु
- शोर
- समीकरण
- हथेली पर सूरज
बाल साहित्य कविता
बाल साहित्य कहानी
नज़्म
कहानी
स्मृति लेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं