हथेली पर सूरज
काव्य साहित्य | कविता रचना श्रीवास्तव13 Mar 2014
हर रोज
उगाती हूँ
एक उम्मीद अपनी हथेली पर
सूरज से
मांग कर
एक कतरा धूप
उसको पोसती हूँ
पलकों से
उसका पोर पोर सहलाती हूँ
मगर
न जाने क्यों
शाम ढलते ढलते
वो मुरझाने लगती है
रात फिर डराने लगती है मुझे
और मैं
उम्मीद की लाश
आपने आगोश में लिए
पलंग के एक कोने में सिमट जाती हूँ
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