दर्द घुटन और औरत
काव्य साहित्य | कविता रचना श्रीवास्तव13 Mar 2014
दर्द घुटन जिल्लतें उठती हैं औरतें
फिर न जाने क्यों
इस जहां में आती हैं औरतें
ऐ खुदा मेरी बस ये फ़रियाद सुनले
क्योंकर बनाता है इन्हें
जो इतनी मजलूम हैं औरतें
माँ तो बनी पर बच्चों पे भी हक़ उनका नहीं
इस न इंसाफ़ी को भी
चुपचाप सह जाती है औरतें
ख़ुद की चाहतें ख़्वाहिशें याद नहीं
दूसरों के लिए
तमाम उम्र जी जाती हैं औरतें
न जाने होंगे कितने शर्मसार
यदि अपनी कहने पे
आ गईं ये सारी औरतें
औरत होना एक जुर्म है शायद
तभी तो दहेज़ के नाम पर
जला दी जाती हैं औरतें
जन्मस्थली कब्रगाह हो जाती हैं
दबाव में समाज के
कोख में मार दी जाती है औरतें
कहने को एक घर भी अपना नहीं
फिर भी घर औरों का
बसा देती हैं औरतें
कह के देवी बंद कर देतें हैं जुबान उसकी
ताकि कर न सके
फ़रियाद ये बेचारी औरतें
काम घर बहार का बाखूबी करती हैं ये
पर इस दोहरी मार में
घुट के रह जाती हैं औरतें
अपनी दुनिया से बहार झाँक के तो देख
कि किस हाल में
तेरी बनाई रहती है औरत
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