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चंदा

 

आज कल चंदा, विभिन्न प्रकार के हो गए हैं। अब आप कौन से चंदा की बात कर रहे हैं। अनुपम खेर जैसे कई लोग अपनी हस्ती को बनाए रखने में चंदा चमकता चाँद होने पर भी दबदबा बनाए हैं। जैसे राजकुमार को देखकर उनका नौकर भाग गया था। पर अदाकारी के दम पर उनकी ही तूती बजती थी। 

वोट बैंक की ज़रूरत के समय पूर्णिमा का चंदा निकल आता, श्वेत कपड़ों में चमचम आता, अपनी दूधिया रोशनी में नहला कर अमावस्या की तरह छुप जाता है। फिर आप ढूँढ़ते रहिए। 

रामकिशन दादा पान चबाते हुए कट्टा लिए चले आते हैं। 

महिला आश्रम का चंदा, अनाथ आश्रम का चंदा, रसीद काटी नहीं और रसीद भी हज़ारों, 500 के आसपास की रसीदें देखकर तो जी घबरा जाए। शर्मा जी कितनी देंगे—अरे हज़ार-डेढ़-2000 से कम नहीं देंगे बेचारे शर्मा जी! अब यह नहीं पता कि बच्चों को वस्त्र, खाना खिलाएँगे या स्वयं मधुशाला जाएँगे। 

लो जी, यह कौन आ गया चंदा-चंदा करता। चंदा तो चंदा के घर होगी ना। चंदा का हाथ माँगने? अरे भैया चंदा माँगने आए हो तो इस गली से दूसरी गली में चले जाना, वहीं चंदा और उसके पिता रहते हैं। वही माँगना चंदा का हाथ। 

गाँव में दादी, नानी, पड़ोसन की बबुआ को नज़र लग जाती है, झट से सिर पर चंदा बना देती हैं। 

कहीं आप गाने की बात तो नहीं कर रही हैं—चंदा है तू मेरा सूरज है तू/तू मेरी आँखों का तारा है तू। एक माँ के लिए बच्चे ही सब कुछ होते हैं। अपने जीवन का सर्वस्व लुटाते हुए वह अपने बच्चों को पालती है। तुलना किसी से भी कर सकती है, चाँद से भी। यहाँ वह आपसे लाल के लिए कह रही है संगीत में।

मेरे पड़ोस का बच्चा दौड़ता हुआ आया कहने लगा, “आंटी जी मेरे हाथ पर चंदा रख दो।” 

मैं कोई बीरबल तो नहीं। दिन में चंदा कहाँ से दे देती; पूछ ही लिया, “दिन में चंदा कैसे दे दूँ?” फिर पूछा, “कौन सा चंदा?” 

“अरे वह जिससे कि 90 डिग्री 100 डिग्री 50 डिग्री नापते हैं।” 

तो भैया, चंदा कहते समय 10 बार सोचना कि कौन-सा चंदा चाहिए। 

या फिर उस चंदा की बात जो पर्दे में से कभी झाँक लेता है और अच्छे-अच्छे मर मिट जाते हैं। झील सी आँखें; वह लहराते काले गेसू। 

वह चक्कर ही लगाते रह जाते हैं उसकी डोली कब चली जाती है! कई दिनों तक दीवारों से सर टकराते हुए मजनूँ घूमते रहते हैं। 

या फिर उस चंदा की बात जो पानी में झिलमिलाता है। 

और लहरों के साथ ओझल हो जाता है। अनकहे, अनसुलझे सवाल छोड़ जाता है। तो कहीं कवि को नई चेतना दे जाता स्फूर्ति दे जाता है। रच देता है अपनी कल्पनाओं में इतिहास!

या फिर आराध्य शिव के के शीश पर सुशोभित होता है। 

कभी-कभी तो चंदा की क़ीमत इतनी बढ़ जाती है कि बिना देखे उसके जल भी ग्रहण नहीं करते—करवा चौथ का चंदा! एक दिन ही ऐसा आता है जब पतिदेव पूजनीय बन जाते हैं! बेचारे त्योहार आने से पहले घबराने लगते हैं। 

रुक जाइए, बीमारी की कोई हम स्थायी राशि निकाल कर नहीं रखते। मगर इन स्थायी चंदों का क्या? 

बग़ल के श्याम कुमार जी का बेटा फ़ीस की रट लगाए हुए था। जैसे-तैसे कर के श्याम कुमार जी ने फ़ीस दी अभी बेटा ख़ुश ही हुआ था दरवाज़े की थाप ने ध्यान बँटाया। होली का चंदा हुंड़दंगा टोली खड़ी थी यह तो, एक लो नवदुर्गा का चंदा, छोटी-छोटी बच्चियाँ झांसी लेकर आ जाती हैं ना रे सुआ टा का चंदा, रामनवमी का चंदा। मध्यम वर्गीय चंदा देते-देते जेब से कंगला हो जाता है। 

कभी-कभी महसूस होता है जिस तनख़्वाह पर टैक्स देकर आया है, अब बाज़ार से सामान लेने जाएगा तो फिर टैक्स देगा हँसकर, मुस्कुरा कर। 

एक अस्थायी चंदा होता है। कभी महिला दरवाज़े पर खड़ी हो जाती है एक बड़ी सी तख़्ती लेकर–उड़ीसा से आई हूँ, वापस अपने घर जाना है, आप चंदा देंगे ना, मैं बोल नहीं सकती। आपने चंदा दिया पर थोड़ी ही देर में अपने आदमी के साथ चक्कर-चक्कर करती दिखाई दे जाती है। क्या करेंगे अब? आप मानवीय हैं। इंसानियत रखते हैं। तो चंदा देंगे वरना धर्म और मज़हब से अलग कर दिए जाएँगे। छोड़ दीजिए, आपके  मुँह से राम निकला या रहीम तो चादर चढ़ाने का चंदा। हृष्ट, पुष्ट, तंदुरुस्त, संपूर्ण शरीर के साथ, आगंतुक के मुख से आप के चंदे के अनुसार दुआएँ मिलेंगी। अभी सावन चल रहा है सावन में साधुओं की टोली चलती है। प्यारा भजन गाते हैं 101 से नीचे नहीं लेते, चंदा तो देना पड़ता है। 

आइए एक और चंदा से मुलाक़ात कराएँ। 

मुंबई की गलियों के पास में एक चंदा रात में निकलता है। गजरे की महक, लाली से सजा अपनी और आकर्षित करता, काम ना मिलने की लाचारी को व्यक्त करता, मुस्कुराता हुआ। सफ़ेद लिबास में दिनभर घूमने वाले यहाँ ज़्यादा जाते हैं। जीवन का एक कड़वा सच यह भी चंदा है। 

गंतव्य पर पहुँचकर मंतव्य बता देना चाहिए तब समझ में आता है कि किस चंदा की बात हो रही है। 

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