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अस्त्र-शस्त्र

 

दुनिया में आप बूढ़े हो जाएँगे 90 साल के 100 साल के कितने, लेकिन अपने माँ के चाँटे को कभी भूल ना पाएँगे और ऐसा कौन-सा बच्चा है जो भारत में अपनी माँ से पिटा नहीं। 

नवदुर्गा की समाप्ति पर माता के अस्त्र-शस्त्रों को नमन, देवी शक्ति रूपा आदिशक्ति है। वह जगदंबा जिसकी हम आराधना करते हैं। पर घर रूपी संसार को चलाने वाली हमारी माता, ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर डालकर देखिए??? कौन, कब, कितनी बार, हमारी पारिवारिक माता के हाथ पिटा? हमारी पारिवारिक माता के पास भी अस्त्र है। वह थोड़ा भिन्न है, वह जिस समय जो कार्य करती हैं वही उनका अस्त्र बन जाता है। जैसे रोटी बना रही है तो बेलन अस्त्र बन गया। रोटी सेंक रही है तो चिमटा अस्त्र बन गया। और यदि घर के कपड़े धो रही हैं तो कुटना; जिससे कपड़े कूटते हैं वह अस्त्र बन जाता है। धन्य है मेरी माँ जिन्होंने मार-मार कर हमें सही रास्ते पर रखा। कहते हैं माँ का एक थप्पड़ ना खाया तो बेटा-बेटी बिगड़ जाते हैं। माँ हमें मर्यादा सिखाती है तो कहीं सहज जीवन जीने के तरीक़े बताती है। मार कर ऐसे ज़ाहिर करती है जैसे कुछ हुआ ही ना हो। वह उनका अधिकार है; चाँटे, लातें, घूँसे, यह भी उनके शस्त्र है। कान उमेठना, बाल खींचना आपके ऊपर इसमें से कौन सी कैटेगरी के अस्त्र-शस्त्र प्रयोग हुए हैं? ख़ुशी से वर्णन ज़रूर कीजिए और क्यों ना करें?? 

अपनी बचपन की याद ताज़ा करने का इससे अच्छा कोई ज़रिया नहीं? 

माँ साथ हो, ना हो, पर उसकी मार हमेशा से याद रहती है। कितनी मीठी, मनमोहन मार, थोड़ी ही देर में थाली भरकर खाना भी मिल जाता है। इस तरह की प्रताड़ना तो रोज़ मिलनी चाहिए। कम से कम आदमी गूँगा बहरा तो नहीं रहेगा अपने विचार तो प्रकट करेगा जो हम मूक बन गए हैं। दिखाई देते हुए देखना नहीं चाहते, यह आँखें बंद करके रहना चाहते हैं। आज पड़ोस, समाज सब भूल चुके हैं याद है तो सिर्फ़ मैं और मेरा मुँह पर थप्पड़। 

चाँटे भी कई प्रकार के पड़ते हैं—जैसे कई माई सिर्फ़ चपत मारती हैं। अगर मास्टर जी ने मारा होता तो पूरी क्लास के सामने, मगर यह तो शारीरिक मार होती थी। ख़ैर, अब पढ़ें ना तो पिटे सही। मार भी ऐसी कि रोज़ किसी न किसी को पड़ती थी। और सुन रखा था गुरु की मार से आगे बढ़ जाते हैं तो भैया कूटते रहते थे। बचपन में खेल-खेल में पक्के दोस्त से भी दुश्मनी हो जाती थी और ऐसी कि शक्ल भी ना देखें मारा-कूटी ऐसी कि एक दूसरे के कपड़े फाड़ दें। 

सड़क पर बाइक लहरा के चला दी तो फिर पुलिस वाले का डंडा। सारी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाती थी, पर अंकल जी अंकल जी करके छूट जाते थे, अब नहीं करेंगे। कई माताएँ ज़बरदस्त झन्नाटेदार थप्पड़ मारती हैं। कुछ देर तो भूल जाते हैं ज़मीन पर हैं कि आसमान पर . . . फिर होश आता है। और यह भी कि माताएँ मारती भी बहुत हैं और शाम को सूजे हुए चेहरे को सजा-धजा कर पिताजी के सामने पेश कर देती हैं। दूर से आँखें दिखाती रहती हैं—ख़बरदार जो बोला कि माँ ने मारा है। माँ के सफ़ाई देने का तरीक़ा होता था—आज ज़्यादा सो गया था इसलिए आँखें लाल हैं या फिर ज़्यादा पढ़ाई कर ली, इसलिए आँखें लाल हैं; क्यों है ना बेटा?? पहले की कुटाई याद करके बेटा कहता है, “हाँ, हाँ, बिल्कुल सही! आज मैंने ज़्यादा पढ़ाई कर ली थी।” या “मैं आज ज़्यादा सो गया था।”

“बेटा तुम्हारा चेहरा उतरा-उतरा क्यों है?” अगर पिताजी ने धोखे से दोबारा पूछ लिया, माँ तुरंत कह देती है “जा बेटा बाहर खेल आ तेरा दोस्त बुला रहा है।”

बेटा भी सारे रंजो-ग़म को भूलकर, ‘चलो मौक़ा तो दिया खेलने का। आज काँच के कंचे, गिप्पी, गुल्ली डंडा, सब खेल डालूँगा आज माँ बुलाने नहीं वाली। पिट गया तो क्या हुआ?’ जबकि उसे याद है कई बार, उसे क्या हर किसी को याद होगा, ज़्यादा देर खेलने पर माँ “बड़ा आया खेलने वाला! पढ़ना लिखना है नहीं; चल आज तेरी कुटाई करती हूँ।” अब कहीं बड़ी बहन हो तो दो चार चाँटे खा लेती थी “छोड़ दो माँ, छोड़ दो माँ” करके। आज भी जब पिताजी मारते हैं तो बेटा माँ से शिकायत करता है और जब माँ मारती तो बेटा पिताजी से नहीं कहता है। वह ज़माना जाने कहाँ खोता चला जा रहा है? यहाँ एक बात तो बताना ही भूल गया जब कुटाई पिटाई हो जाती थी तो माँ बुढ़िया के बाल, जलेबी ज़रूर खिलाती थी। और हर प्रकार की मार की अलग-अलग चोटें लगती थीं। एक बार मा’साहब ने पूरी क्लास के सामने मार दिया; लड़कियाँ हँसने लगी चोट दिल पर लग गई। फिर क्या था रोज़ पढ़ाई करके जाने लगे उस दिल पर लगी चोट से, आज कुछ बन भी गए। पर आजकल तो बच्चों से एक शब्द नहीं कह सकते, उल्टा वही आपको उठना, बैठना, खड़ा होना सिखा देंगे। 

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