अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सभ्यता के कफ़न में लिपटी हैवानियत: एक महाकाय व्यंग्य

 

कहते हैं—
हम बदल रहे हैं, 
समाज जाग रहा है, 
महिलाएँ आगे बढ़ रही हैं, 
बच्चियाँ अब निर्भीक उड़ान भर रही हैं। 
लेकिन यह सब केवल
सरकारी विज्ञापनों और भाषणों में लिखा हुआ
एक सुगंधित झूठ है—
जिसे हवा मिलते ही
बदबू आने लगती है। 
 
सच तो यह है—
कि आज पाँच साल की बच्ची भी
डरते-डरते क़दम रखती है, 
और गोद की नन्ही शिशु भी
जाने-अनजाने अपनी माँ की छाती पकड़े
सुरक्षा का भीख माँगती है। 
क्योंकि सड़कें नहीं बदलीं, 
हवस नहीं बदली, 
और हैवानों की भूख तो
दिन–प्रतिदिन और तीखी हो गई है। 
 
बच्ची की सुंदरता भी
अब दुआ नहीं रही—
अब वह अभिशाप बन गई है। 
क्योंकि समाज इतना नीचे गिर चुका है
कि अब मासूमियत भी
हवस के ठेकेदारों के लिए
“सोने की खान” बन गई है। 
 
बुरहानपुर . . . एक ऐसा नाम
 
जो अब न मानचित्र की तरह लगता है, 
न शहर की तरह, 
बल्कि एक सड़ी हुई चेतना की तरह लगता है। 
जहाँ एक मृत महिला—
हाँ, ध्यान दीजिए—
मृत महिला, 
जिसकी साँसें बंद थीं, 
जिसका शरीर पोस्टमार्टम के लिए
क़ानून की जाँच में रखा गया था . . . 
वह भी हैवानियत से बच नहीं सकी। 
 
मृत देह की सुंदरता भी हवस बन गई? 
क्या यह समाज इतना गिर गया है
कि अब शव भी सुरक्षित नहीं? 
पोस्टमार्टम कक्ष—
जो न्याय की पहली सीढ़ी होता है, 
वह हवस की आख़िरी मंज़िल बन गया। 
 
क्या अब हम गर्व करें कि—
भारत डिजिटल हो रहा है? 
या शर्म से सिर झुकाएँ कि—
भारत हैवानियत का ‘हब’ बन रहा है? 
 
शरीर ज़िन्दा हो तो डर, 
शरीर मर जाए तो भी ख़तरा। 
एक ज़िन्दा महिला पर हमला हो—
तो समाज कहता है “कपड़े ऐसे थे।” 
मरी हुई महिला पर हमला हुआ—
तो अब बहाना क्या बनाएगा समाज? 
“शव की ड्रेस भड़काऊ थी?” 
“मृत देह ने उकसाया था?” 
या फिर
“हैवान बहुत अकेला था?” 
 
व्यंग्य कहता है—
यह वह समाज है
जहाँ अपराधी पनपते हैं
और न्याय शर्म से मुरझा जाता है। 
 
और बच्चियाँ? 
 
वे स्कूल जाने को निकलें
तो चार आँखें नहीं—
सैंकड़ों गंदी नज़रें
उनके चारों ओर चक्कर काटती हैं। 
यह कैसी सड़कें हैं? 
यह कैसा माहौल है? 
यह कैसा प्रगतिशील भारत है
जहाँ बेटियाँ एक लंबी साँस लेकर
हर मोड़ पर प्रार्थना करती हैं—
“हे भगवान, आज घर सुरक्षित पहुँच जाऊँ।” 
 
और हैवान? 
हैवान तो अब 5G वाले हो गए हैं—
उनकी सोच की रफ़्तार
हवस के रॉकेट पर चढ़ गई है। 
क़ानून की किताबें
उनके लिए काग़ज़ के खिलौने हैं। 
सज़ा का डर
उनके लिए मज़ाक़ है। 
क्योंकि उन्हें पता है—
हमारे देश में अपराध का परिणाम
कड़ी निंदा तक सीमित है। 
 
हमारा क़ानून? 
 
उसकी हालत भी
एक बुज़ुर्ग की तरह हो गई है—
जिसकी कमर झुकी हुई है, 
क़दम धीमे हैं, 
आवाज़ कमज़ोर है, 
और फ़ैसले . . . 
कभी आते हैं, कभी नहीं आते। 
 
पोस्टमार्टम कक्ष में मृत महिला का रेप—
क़ानून को भी शायद लगा होगा
कि उसे भी अब कफ़न ओढ़ लेना चाहिए। 
 
व्यवस्था कहती है—
“दोषियों पर कड़ी कार्रवाई होगी।” 
पर व्यंग्य पूछता है—
कब? 
कैसे? 
किसके लिए? 
और कब तक? 
 
यह वही समाज है
जहाँ हर घटना के बाद
मोमबत्तियों का बिज़नेस
सबसे ज़्यादा चमकता है। 
परिवर्तन का नहीं—
मौन का व्यापार चलता है। 
औरत पर हमला हो या बच्ची पर, 
हम बस नारे लगाते रहेंगे—
“बेटी बचाओ . . . ” 
अरे पहले इंसान बचाओ! 
फिर बेटी बचेगी। 
 
सज़ा क्या होनी चाहिए? 
 
क़ानून कहता है—
जेल। 
समाज कहता है—
कठोर दंड। 
पर व्यंग्य कहता है—
पहले यह समझाओ कि
इंसान होने का अर्थ क्या है। 
क्योंकि जब तक
मानवता को मनुष्य का अभिन्न अंग
नहीं बनाया जाएगा, 
तब तक कोई भी सज़ा
हवस के स्नातक अपराधियों पर
असर नहीं करेगी। 
 
इन दरिंदों को
सिर्फ़ शरीर की सज़ा नहीं, 
आत्मा की सज़ा चाहिए—
हाँ, वही आत्मा
जिसे उन्होंने कभी जन्म ही नहीं लेने दिया। 
 
और हम? 
 
हम कल फिर अख़बार खोलेंगे, 
एक और बच्ची की तस्वीर देखेंगे, 
थोड़ी देर दुखी होंगे, 
और फिर चाय का घूँट लेते हुए कहेंगे—
“समाज बिगड़ गया है।” 
 
पर समाज बिगड़ा नहीं है, 
हम बिगड़े हैं—
हमारी चुप्पी, 
हमारी निंदा, 
हमारा मौन, 
और हमारी कमज़ोरी
इन हैवानों को ताक़त देती है। 
 
कहते हैं—
हम सभ्य समाज हैं। 
हाँ, बिल्कुल—
इतने सभ्य
कि अब शव भी
हवस से सुरक्षित नहीं। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

नज़्म

चिन्तन

कहानी

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं