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स्त्री—हर युग में कटघरे में

 

हम कहते हैं—समय बदल गया है। 
महिलाएँ आगे बढ़ रही हैं, 
अंतरिक्ष में भी, अदालतों में भी, 
राजनीति, सेना, विज्ञान—हर जगह। 
पर यह प्रगति, समाज की नज़र में, 
आज भी “स्थायी प्रमाणपत्र” नहीं है। 
हर सफलता के बाद अगली सफलता ही
उनकी नई योग्यता का सबूत मानी जाती है। 
 
बराबरी का दावा करने वाला समाज
अब भी स्त्री से अधिक “स्पष्टीकरण” की माँग करता है
और पुरुषों से अधिक “समर्थन” देता है। 
 
सीता का अपराध क्या था? 
 
इतिहास पूछता है—
सीता माता की क्या भूल थी? 
वनवास में साथ चलना? 
अग्नि में तपना? 
मर्यादा की परिधि में स्वयं को समर्पित कर देना? 
 
फिर भी परीक्षा उन्हीं की। 
उनकी पवित्रता पर प्रश्न, 
उनकी निष्ठा पर संदेह—
और पुरुष का निर्णय देवत्व। 
 
युग बदल गए, 
पर स्त्री पर शक करने की प्रवृत्ति
अभी भी वही पाषाण युग वाली है। 
 
रेणुका क्यों दोषी ठहराई गई? 
 
कहानी यह भी है—
रेणुका को अपने पति की पीड़ा देखकर
आँखें भर आईं। 
बस इतना ही। 
भावनाएँ अगर पुरुष की हों तो संवेदनशीलता, 
और स्त्री की हों तो आरोप। 
रेणुका के आँसू “अपराध” बन गए
और उनके गले पर तलवार चल गई। 
 
इतिहास में यह घटना दर्ज है, 
और समाज में इसका मर्म
आज भी जीवित। 
 
दफ़्तर की महिला: आधुनिक युग की अग्नि परीक्षा
 
दफ़्तरों में देखें तो दृश्य बदलते नहीं। 
 
महिला अधिकारी अपनी मेज़ पर बैठी
सुबह से शाम तक काम में डूबी रहती है। 
लंच भी मेज़ पर ही निपटाती है, 
क्योंकि काम का ढेर उसके कंधों पर है। 
घड़ी देखने का समय नहीं, 
शिकायत करने की आदत नहीं। 
 
और पुरुष? 
दस मिनट में “मैदानी निरीक्षण” के बहाने
चाय वाली दुकान पर खड़े मिलते हैं। 
दफ़्तर लौटकर कहते हैं—
“काम बहुत है, समय ही नहीं मिलता!” 
और मज़े की बात—
पूछताछ होती है महिला की। 
मानो उसे अपनी कुर्सी पर बैठे रहने का
विशेष कारण बताना हो। 
 
स्त्री से योग्यता पूछी जाती है, पुरुष से आदतें
 
समाज का सवाल—
“तुम सक्षम हो?” 
और पुरुष से सवाल—
“आज चाय कहाँ पी?” 
 
स्त्री से उम्मीद कि वह घर भी सँभाले, 
दफ़्तर भी, 
बच्चों का भविष्य भी, 
और बुज़ुर्गों की दवा भी। 
उसके लिए थकान, तनाव, अवकाश—
सब विलासिता। 
 
पुरुष को सुविधा मिले तो उनका अधिकार, 
और स्त्री को सुविधा मिल जाए
तो लोग इसे “रियायत” कह देते हैं। 
 
2025—तकनीक बदली पर मानसिकता नहीं
 
हम एआई, रोबोटिक्स, डिजिटल इंडिया की बात करते हैं, 
पर स्त्री के प्रति धारणा अभी भी
पुरानी जंग खाई ताले जैसी है—
जिसे कोई बदलने की कोशिश ही नहीं करता। 
 
इतिहास की सीता और रेणुका
आज की हर उस महिला में दिखाई देती हैं
जो अपना कार्य समर्पण से करती है
और फिर भी सवालों के पहाड़ उसके सामने रख दिए जाते हैं। 
 
युग बदला है, 
लेकिन स्त्री पर संदेह का कटघरा
अब भी जंग नहीं खाया—
क्योंकि उसे सजाने वाले
अभी भी वही लोग हैं
जिन्हें अपनी श्रेष्ठता का भ्रम
सबसे बड़ा धर्म लगता है। 

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