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संस्कार एक्सप्रेस–गंतव्य अज्ञात

 

एक दिन मैं बस में चढ़ी, सीट मिली नहीं, संस्कारों को बैठा देखा, पर वे अपाहिज लगे—कोई बैसाखियों पर, कोई कोने में सिसकता हुआ। कंडक्टर से पूछा, “भाई साहब, ये संस्कार इतने घायल क्यों हैं?” 

कंडक्टर ने टिकट फाड़ते हुए कहा, “बहन जी, अब बस में सीट से ज़्यादा मोबाइल में झाँकने वाले हैं। नज़र उठाकर कुछ देखने की फ़ुर्सत किसे है?” 

तभी अख़बार खुला, और पहले पन्ने पर चीखते हुए अक्षरों ने बताया—12वीं के छात्र ने 5 साल की बच्ची के साथ . . .। आँखों ने पढ़ा, दिमाग़ ने समझा, आत्मा ने ख़ुद को धिक्कारा, और फिर हाथ ने अख़बार मोड़कर रख दिया। आख़िर रोज़-रोज़ दिमाग़ का रेप कौन करवाए? 

ट्रेन की पटरी पर संस्कारों की हड्डियाँ टूटी पड़ी थीं, चार माह की गर्भवती महिला भी वहीं कराह रही थी। मैंने स्टेशन मास्टर से पूछा, “ये क्या हो रहा है?” 

उसने मुस्कुराकर कहा, “ये तो आम बात है, टिकट कटाओ, सफ़र करो, और भूल जाओ!”

मैंने सोचा, संस्कार एक्सप्रेस कब की पटरी से उतर चुकी है, अब तो यह असंवेदनशीलता लोकल बन गई है। बसों और ट्रेनों में जिस्मों की भीड़ तो बहुत है, मगर इंसान कोई नहीं दिखता। 

शायद अब समय आ गया है कि कोई जाग जाए, कोई खड़ा हो, कोई पूछे—ये गंतव्य किस ओर है? और इस सफ़र में इंसानियत का अगला स्टेशन कब आएगा? 

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