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आहार दमदार आज के

 

भोज्य पदार्थ खाए नहीं जाते हैं भाई साहब, हमारे यहाँ भोजन केवल पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि कला है, रस्म है और एक अद्भुत अनुष्ठान भी है। यहाँ समोसे-कचौरी सिर्फ़ खाए नहीं जाते, बल्कि दवाई हो जाते हैं, जैसे डॉक्टर ने सुबह उठते ही नाश्ते की प्रिस्क्रिप्शन थमा दी हो। पोहा-जलेबी का तो हाल ऐसा है कि वो सलटाई नहीं जाती, बल्कि उनके साथ सुबह का झगड़ा तक निपट जाता है। 

शादी-ब्याह में रसगुल्ले उड़ाए जाते हैं, मानो रसगुल्ले नहीं, हेलीकॉप्टर हो। और पार्टी में दाल बाटी जिमाने वाले ऐसे ताक़तवर नज़र आते हैं, जैसे वो स्वर्ण पदक जीतने आए हों। चासनी में डूबी गरम-गरम जलेबी में डुबकी लगाई जाए या यह कह लो की लार टपकने लगती है देख कर गरम-गरम जलेबी। बर्थडे पार्टी में छोले-भटूरे पेले जाने का अंदाज़ तो ऐसा होता है जैसे पूरी बारात लेकर हमला बोल दिया गया हो। और पार्टी में तो माल उड़ाया जाता है। 

अरे मडवा का नाम लेते ही आँखों के सामने कढ़ी चावल और बरा की तस्वीर घूमने लगती है। यह कोई साधारण भोजन नहीं, बल्कि पेट और आत्मा का ऐसा संगम है, जिसे देखकर देवी-देवता भी प्रसन्न हो जाएँ। कढ़ी चावल सपेटने की कला में जो महारथ यहाँ दिखाई जाती है, वह ओलंपिक में शामिल हो जाए, तो गोल्ड पक्का है। 

कढ़ी का स्वाद ऐसा कि चावल के हर दाने पर उसकी लिपस्टिक लगी हो, और बरा तो ऐसा लगता है, मानो प्लेट में बैठा हुआ राजा हो। हर कौर ऐसा गटकते हैं, जैसे यह आख़िरी युद्ध हो और भोजन ही हथियार। प्लेट में बचे चावल को ऐसी सफ़ाई से चाटते हैं, मानो सीबीआई का रेड पड़ने वाला हो। 

और हाँ, खाने के दौरान वो कढ़ी में बरा डुबाने का अंदाज़ ऐसा होता है, जैसे गंगा में डुबकी लगाई जा रही हो। कोई भी पूछ ले कि पेट भर गया? तो जवाब होगा, “अरे पेट भरने की बात मत करो, मडवा में तो आत्मा तृप्त हो जाती है।”

सबसे मज़ेदार बात यह है कि इस आयोजन में चम्मच और काँटे की कोई जगह नहीं होती। हाथ ही वो हथियार हैं, जिनसे कढ़ी चावल को सपेटा जाता है। और अंत में जब पेट इतना भर जाता है कि कुर्ता तंग पड़ने लगता है, तो कहते हैं, “बस भाई, अब नहीं खाया जाएगा।” लेकिन तभी कोई दूसरा बरा प्लेट में डाल दे तो आत्मा फिर से जाग जाती है। 

कुल मिलाकर, मडवा में कढ़ी चावल और बरा सिर्फ़ भोजन नहीं, यह हमारे जीवन का महायज्ञ है, जिसमें हर कौर अग्नि को समर्पित करने जैसा लगता है। या यह समझ लो को दूसरे का माल डकारा जाता है। 

ठंड का मौसम आते ही चाय सुड़कने की कला एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता बन जाती है। मलाईदार दूध तो ऐसा गटकते हैं जैसे जीवन का आख़िरी घूँट हो। 

रबड़ी का तो ज़िक्र ही मत कीजिए, उसे तो लवर-लवर चाटने वाले लोग प्यार के नए आयाम स्थापित कर देते हैं। दाल-भात लपेटने में ऐसी कुशलता दिखाई जाती है, जैसे कोई मुर्ग़ा कुश्ती जीतने वाला हो। आलू के पराठे तो ऐसे ठूँस ठूँस कर खाए जाते हैं जैसे पेट नहीं, सीमेंट का गोदाम हो। 

मकर संक्रांति और खिचड़ी—भारतीय पेट का दो ध्रुवीय दर्शन

मकर संक्रांति आते ही लड्डू की ऐसी धूम मचती है, जैसे यही त्योहार का असली देवता हो। तिल के लड्डू हों या गुड़ के, इन्हें निपटाने की गति देखकर कोई भी क्रिकेट की पारी को भूल जाए। एक-एक लड्डू को ऐसे निगला जाता है, जैसे पेट में कोई बैंक खाता खुल रहा हो, और लड्डू उसका फ़िक्स्ड डिपॉज़िट। 

और यह निपटाई सिर्फ़ पेट तक सीमित नहीं रहती। लड्डू खाते वक़्त जो श्रद्धा का भाव चेहरे पर आता है, वह देखने लायक़ होता है। ऐसा लगता है मानो लड्डू नहीं, जीवन का मक़सद गटक रहे हों। कुछ लोग तो लड्डू खाते-खाते ऐसी हरकतें करने लगते हैं, जैसे उन्हें पुरस्कार मिलने वाला हो। और अंत में, जब पेट का हाल बेलन से गुंदे आटे जैसा हो जाता है, तो कहते हैं, “भाई, बस हो गया, अब और नहीं।” लेकिन तभी कोई कह दे, “अरे, अभी तिलकुट बाक़ी है!” तो आत्मा फिर से उठ खड़ी होती है। बीमार पड़ने पर खिचड़ी पाई जाती है, ऐसा लगता है मानो दवाई नहीं, सम्मान समारोह हो रहा हो। और जैसे ही स्वस्थ हुए, लड्डू और पेड़े पर ऐसा टूट पड़ते हैं, मानो माफ़िया का बकाया वसूल रहे हों। 

अब बीमार पड़ने पर खिचड़ी का ज़िक्र करें तो समझिए, यह भारतीय चिकित्सा पद्धति का आधार है। डॉक्टर से पहले माँ और दादी खिचड़ी का फ़रमान जारी कर देती हैं। खिचड़ी खाते वक़्त चेहरा ऐसा बनता है, मानो सज़ा काट रहे हों। और यह खिचड़ी भी इतनी बेस्वाद बनाई जाती है कि चटनी-आचार तक रोने लगें। 

लेकिन खिचड़ी में जो सम्मान है, वह किसी और भोजन में नहीं। लोग कहते हैं, “अरे खिचड़ी खा लो, जल्दी ठीक हो जाओगे।” पर सच यह है कि खिचड़ी बीमार को ठीक नहीं करती, बल्कि उसे यह अहसास दिलाती है कि बीमारी से बचने के लिए आगे से खाने-पीने में संयम रखना पड़ेगा। 

तो मकर संक्रांति पर लड्डू निपटाने और बीमारी में खिचड़ी पाने का यह अनोखा भारतीय समीकरण हमें सिखाता है कि जीवन का स्वाद लड्डू की मिठास में है, लेकिन संतुलन खिचड़ी की सादगी में। 

भाई साहब, लस्सी हमारे यहाँ कोई साधारण पेय नहीं है, यह तो आत्मसम्मान का प्रतीक है। इसे पीने का तरीक़ा ऐसा होता है, मानो कोई महाराजा रणभूमि से जीतकर लौटा हो। गिलास से नहीं, जग से पीने वाले तो अलग ही रुत्बे में रहते हैं। और सबसे ख़ास बात—लस्सी मूँछों पर ताव देकर पी जाती है, जैसे हर घूँट के साथ मूँछों की शान और बढ़ रही हो। 

मूँछें अगर लस्सी से गीली न हों, तो समझिए पीने वाले का सम्मान अधूरा रह गया। ऐसी अकड़ दिखाई जाती है जैसे दूध-दही की नदियों पर अकेले अधिकार कर लिया हो। और जब पीने के बाद मूँछों पर लगी मलाई को ताव देते हुए साफ़ किया जाता है, तो लगता है कि कोई योद्धा अपना तलवार चमका रहा हो। 

गाँव-क़स्बे की बात छोड़िए, बड़े-बड़े शहरों में भी लस्सी की यही शान है। ढाबे पर खड़े होकर एक-एक किलो की लस्सी गटकने वाले लोग अक्सर अपने पेट को गर्व से सहलाते हुए कहते हैं, “अरे भाई, हमारा तो ये रोज़ का काम है!”

और लस्सी का गिलास ख़ाली होते ही वो गहरी डकार जो आती है, वो किसी विजेता की गर्जना से कम नहीं होती। इसे सुनकर लगता है, मानो लस्सी ने आत्मा तक सफ़र तय कर लिया हो। कुल मिलाकर, लस्सी पीने का यह अनुष्ठान मूँछों के ताव और आत्मगौरव के बिना अधूरा ही रह जाता है! 

और पान-गुटखा का तो कहना ही क्या! मुँह में ऐसा फँसाया जाता है, जैसे किसी अँधेरे कमरे में टॉर्च रख दी हो। 

 कुल मिलाकर, हमारे यहाँ खाना केवल खाना नहीं, बल्कि पूरे भारतीय जीवन का राग, रस और रंग है। 

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