इलाज
कथा साहित्य | कहानी डॉ. सुनीता जाजोदिया15 Aug 2023 (अंक: 235, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
15 अगस्त की सुबह 6:00 बजे वह बड़े ही उत्साह के साथ उठी। आज़ादी का एहसास उसे पुलकित कर रहा था। कितनी रोमांचक और ख़ुशनुमा रही होगी 65 साल पहले वाली आज की यह सुबह समस्त देशवासियों के लिए। मेघना को लगा कि सूरज ने उसके रोमांच को महसूस कर सुनहरी किरणें आसमान में बिखेर दी थी। आज की यह सुबह उसे बड़ी ख़ास और अद्भुत लग रही थी।
वह मन में सोच रही थी कि अभी जल्दी नाश्ता बनाकर सोसाइटी के स्वतंत्रता दिवस समारोह में जाएगी। कौन सी साड़ी पहनेगी, उसने मन में यह भी सोच लिया था। समारोह अध्यक्ष के रूप में उसे ‘वर्तमान संदर्भ में आज़ादी’ पर भाषण देना था। उसके दिमाग़ में विचारों का ताँता लगा हुआ था। बाथरूम से फ़्रेश होकर मुँह में टूथब्रश दबाए उसने अख़बार हाथ में लिया तो मुख्य ख़बर थी—‘नहीं थमा घर वापसी का दौर . . .” यह किसकी वापसी है और क्यों? कौन कहाँ से वापस हो रहा है? अपने ही देश के शहरों से भगाए जाते हैं लोग। यह तो वैसे ही हुआ जैसे एक घर में कुछ सदस्यों को घर के किसी ख़ास कमरे में रहने की मनाही हो। कुछ सिरफिरों का ही काम हो सकता है। थोड़ी सी अक़्ल वाले भले लोग ऐसा हरगिज़ नहीं करेंगे। कभी मुंबई, कभी कलकत्ता और अब बैंगलोर, हैदराबाद, चेन्नई . . . भाषा और प्रांत के नाम पर दिलों को तोड़ने वाले क्षुद्र स्वार्थी लोग। ऐसा कर न जाने कौन से अहं की तुष्टि होती है भला? मेघना के मन में सवालों की झड़ी लग गई थी। उसे एक वाक़या याद आया। कॉलेज से घर के लिए लौटते वक़्त बस की आख़िरी सीट पर बैठी थी वह। बस के दरवाज़े पर कान में हेडफोन लगाए गाने सुनने में मस्त था एक युवक। बस स्टाप पर बस में चढ़ते हुए एक यात्री उससे अंदर जाने के लिए कह रहा था। प्रांतीय भाषा न समझने वाला युवक वहीं खड़ा रहा। युवक को धकेल कर बस में अंदर चढ़ते हुए वह यात्री कहने लगा, “बस के दरवाज़े पर खड़े रहना यहाँ मना है। मनमानी करनी है तो जाओ अपने गाँव-अपने देस, यहाँ क्यों चले आए। ये अच्छी सीनाज़ोरी है, जहाँ रहते हैं, न तो वहाँ की भाषा जानेंगे और न ही नियम-क़ायदे मानेंगे। गो बेक टू यूअर होम . . .।”
यात्री के आख़िरी जुमले से तैश खाकर पूर्वांचल से पधारा वह युवक अंग्रेज़ी में चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगा, "द होल कंट्री इज़ माइन, आइ कैन लिव वेअर आई वांट . . .ये पूरा देश मेरा है, मैं अपनी मर्ज़ी के अनुसार कहीं भी रह सकता हूँ . . .।” अलगाव और बेगानेपन की पीड़ा से युवक का गोरा चेहरा साँवला पड़ गया था। अगले बस स्टाप पर उतरते हुए मेघना ने युवक से हिंदी में बात करते हुए अपनी सीट पर बैठने के लिए कहा। युवक का चेहरा खिल उठा था और बस से उतरते हुए लोगों की फुसफुसाहट में उसे ‘नार्थ इंडियन’ शब्द सुनाई दिया। चेन्नई में पैदा होने के कारण प्रांतीय भाषा बोलने और समझने वाली मेघना के कान सुन्न हो गए थे। इसके आगे वह कुछ और न सुन सकी। बस से उतरते हुए उसे लगा कि उसका पूरा शरीर जल रहा है। भाषा और प्रांतीयता की आग थी यह।
आज यह घटना फिर से उसके ज़ेहन में उभर आई थी। अख़बार के दूसरी तरफ़ ‘भारत छोड़ा’ आंदोलन का इतिहास और घटनाक्रम था। उसे लगा ये आंदोलन आज भी जारी है। आज़ादी से पहले देश की जनता ने एक होकर फिरंगियों के ख़िलाफ़ किया था यह आंदोलन और आज चंद लोग देश को तोड़ने के लिए अपनों के ही ख़िलाफ़ कर रहे हैं ऐसे आंदोलन। आज़ादी के पैंसठ साल बाद भी अनेक समस्याओं से घिरा है देश-भ्रष्टाचार, आतंक, महँगाई, ग़रीबी, बेरोज़गारी, सूखा-बाढ़-भुखमरी . . . अब भाषा और क्षेत्रीयता भी इसमें जुड़ जाएँगी तो समस्या और भी जटिल हो जाएगी। क्या होगा इस देश का? मेघना ने निश्चय किया कि वह आज इस समस्या पर ही वह अपने विचार रखेगी—आख़िर नागरिक ही तो इस देश को जोड़ सकते हैं।
भाषण में जब उसने इस मुद्दे को उठाया तो इस पर चर्चा छिड़ गई। सोसाइटी के लोगों ने आनन-फ़ानन में फ़ैसला किया कि शान्ति से वे एक जुलूस निकालेंगे। यह भी फ़ैसला हुआ कि मुख्मंयत्री को एक अर्ज़ी सौंपी जाए जिसमें देश को तोड़ने वाले अराजक तत्त्वों को नियंत्रित कर उनके ख़िलाफ़ कड़े क़दम उठाने की आम सहमति प्रकट की जाए।
‘भेदभाव छोड़ो, देश को जोड़ो’; ‘पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण पुकारती हैं दिशाएँ, बसा ले घर कहीं भी, देश ये तेरा अपना है’—ऐसे कुछ नारों के लिए बैनर बनाने की बात भी तय हुई। ज़ोर-शोर से तैयारियाँ शुरू हुईं। बैनर के लिए आवश्यक चीज़ें मँगवानी थी। वाचमेन को सूची दी गई। मेघना ने उसे कहते सुना, “सोसाइटी के सामने वाले स्टोर से ख़रीद लूँ क्या?”
“नहीं, नहीं, उसकी कोई ज़रूरत नहीं है। स्थानीय लोगों को ही हमें बढ़ावा देना है। तू गली के मोड़ पर जो बालाजी सिटी स्टोर है वहाँ से ले आ फटाफट,” उसने सेक्रेटरी को कहते सुना।
मेघना का जी घबराने लगा, सिर चकराने लगा। तबियत ख़राब होने की बात कह कर वह घर की ओर चल दी। माइक पर घोषण हो रही थी कि समारोह अध्यक्ष की अचानक तबियत बिगड़ जाने की वजह से उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा है। इस ‘एकता मोर्चे’ में वे भाग नहीं ले सकेंगी। मेघना सोच रही थी प्रांतीयता फैलाने वाले मानसिक रूप से कमज़ोर और बीमार लोगों के लिए भी काश! कोई अस्पताल होता जहाँ उनका इलाज हो पाता।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
लघुकथा
साहित्यिक आलेख
कहानी
कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनुभूति की आठवीं 'संवाद शृंखला' में बोले डॉ. बी.एस. सुमन अग्रवाल: ‘हिंदी ना उर्दू, हिंदुस्तानी भाषा का शायर हूँ मैं’
- अनुभूति की ‘गीत माधुरी’ में बही प्रेमगीतों की रसधार
- डब्लूसीसी में उत्कर्ष '23 के अंतर्गत हिंदी गद्य लेखन कार्यशाला एवं अंतर्महाविद्यालयीन प्रतियोगिताओं का आयोजन
- डब्लूसीसी में डॉ. सुनीता जाजोदिया का प्रथम काव्य संग्रह: ‘ज़िन्दगी का कोलाज’ का लोकार्पण
- तुम्हारे क़दमों के निशान दूर तक चले लो मैंने बदल ली राह अपनी: मेरी सृजन यात्रा में मोहिनी चोरड़िया से संवाद
- मैं केवल एक किरदार हूँ, क़लम में स्याही वो भरता है: अनुभूति की पंचम ‘संवाद शृंखला’ में बोले रमेश गुप्त नीरद
- व्यंग्य का प्रभाव बेहद मारक होता है: अनुभूति की पंचम संवाद शृंखला में बीएल आच्छा ने कहा
- श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन और चिंतन-मनन आवश्यक: अनुभूति की चतुर्थ ‘संवाद शृंखला’ में बोले डॉ. दिलीप धींग
- श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन और चिंतन-मनन आवश्यक: अनुभूति की तृतीय ‘संवाद शृंखला’ में बोले डॉ. दिलीप धींग
- सच्ची कविता स्वांत: सुखाय की अभिव्यक्ति है, इसमें कोई मायाजाल नहीं होता: अनुभूति की द्वितीय ‘संवाद शृंखला’ में बोले डॉ. ज्ञान जैन
- सृजन यात्रा में अब तक नहीं पाई संतुष्टि: अनुभूति की प्रथम 'संवाद शृंखला' में बोले प्रहलाद श्रीमाली
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं