चक्रव्यूह
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सुनीता जाजोदिया1 Jul 2021 (अंक: 184, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
कभी एक धोती तो कभी एक साड़ी
कभी एक कुकर तो कभी एक गैस चूल्हा
कभी एक मिक्सी और कभी एक ग्राइंडर
कभी एक टीवी और कभी एक वॉशिंग मशीन
कभी एक साइकिल तो कभी एक लैपटॉप
कभी एक बिरयानी और एक दारू की बोतल
कभी कुछ खनकते सिक्कों की दमक
कभी कुछ फरफराते नोटों की ठंडक
इनपर अपना बहुमूल्य वोट बेचकर
लोकतंत्र का उत्सव ख़ूब मना कर
भ्रष्टाचार का तंत्र मज़बूत कर
अपनी मौत का चक्रव्यूह रच कर
महामारी के चंगुल में फँसकर
दवाखोरों और जमाख़ोरों में घिरकर
व्यर्थ क्यों मचाते हो चीख़-पुकार
जो बोया वही तो पाओगे ।
विषाणु के तांडव में
प्रियजनों को खोने के ग़म में
बहते हों जो पश्चाताप के आँसू
तो उठो! लड़ो! वीर अभिमन्यु बनकर
कर दो ध्वस्त जात-पांत
भाषा-धर्म के वोट बैंक की व्यूह-रचना
और लहरा दो पताका मानव धर्म की
देकर सच्चा जनादेश
सदाचार के पवित्र आचरण का!
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डॉ पदमावती 2021/07/01 07:04 PM
वाह सुप्त चेतना को झकझोरने वाली कविता । कड़वा सत्य । वोट बैंक की राजनीति । मूक बधिर जनता के दम तोड़ते संस्कार बधाई हो मैडम बहुत सुंदर