सवाल
कथा साहित्य | कहानी डॉ. सुनीता जाजोदिया1 Aug 2021 (अंक: 186, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
घंटी बजी तो वह आश्चर्य में पड़ कर सोचने लगी कि कौन हो सकता है? जब से लॉक डाउन हुआ है घंटी ने भी शोर मचाना बंद कर दिया है। लगता है वह भी सकते में आ गई है, जैसे कि संपूर्ण लॉक डाउन की घोषणा के बाद सारी जनता सकते में आ गई थी। आसपास के परिवेश के अनुरूप घंटी ने भी सन्नाटा ओढ़ लिया था। सामने सेल्वी खड़ी थी मुँह पर रुमाल बाँधे।
"क्या हुआ, तुम फिर से आज कैसे?"
उसे फिर से सामने देखकर अंजलि अनायास पूछ बैठी।
डबडबाई आँखों से उसने कहा, "अक्का (दीदी) परसों यहाँ से पैसे ले जाकर भगवान की तस्वीर के पीछे रख दिए थे और उठाना भूल गई थी। कल सवेरे जल्दी उठकर मैं राशन लाने चली गई और इधर पीछे से मेरा आदमी वह रुपए लेकर शराब ख़रीदने की लाइन में लग गया। आधे से ज़्यादा रुपयों की उसने शराब ख़रीद ली और बचे हुए रुपए उसने अपने दोस्त को उधार दे दिए शराब पीने के लिए। कल राशन भी नहीं मिला। ख़ाली हाथ घर लौटी। आज भी बड़ी लंबी लाइन थी और जब लोग लाइन तोड़ने लगे तो पुलिस ने डंडे बरसाना शुरू कर दिया था तो जान बचा कर यहाँ भाग आई। जान चली जाएगी तो पीछे से दो-दो बेटियों को कौन देखेगा? अक्का, कल से घर में खाना नहीं बना। मर्द तो सवेरे ही घर से निकल गया। अब तू ही मेरा सहारा है। ना मत कहना, कुछ रुपए दे ताकि चूल्हा जला सकूँ। तुम कहोगी तो मैं कल से काम पर भी आ जाऊँगी।"
" नहीं . . . अभी मत आना। लॉकडाउन पूरा खुलने के बाद ही काम पर आना। अच्छा यह तो बता कि वॉचमैन ने तुझे सोसाइटी में अंदर आने कैसे दिया जबकि आवाजाही की सख़्त मनाही है?"
"अक्का, भला आदमी था वह। उसने तो मुझे रोक दिया था। मैंने उसे अपनी मजबूरी बताई, भूखे पेट का वास्ता देकर मिन्नतें की तो वह पसीज गया।"
दिल तो अंजलि का भी पसीज गया था हालाँकि पैसों की तकलीफ़ में तो वह भी थी। अंजलि और नीलेश, दोनों की कंपनियों ने वेतन में कटौती कर दी थी। किंतु फिर भी वे लोग शुक्र मना रहे थे कि नौकरी तो बची हुई है। लॉकडाउन में पिछले डेढ़ महीनों से अब वह बहुत फूँक-फूँक कर घर चला रही है। इतना ही नहीं घर और ऑफ़िस दोनों का दोहरा काम भी उस पर आ गया था। नीलेश हाथ बँटाता था पर फिर भी घर की ज़िम्मेदारी तो उसी की थी। दो छोटे बच्चे भी थे।
एक मन हुआ कि वह उसे कल से काम पर बुला ले किंतु तभी कोरोना के डर ने उसे दबोच लिया। मुश्किल से दस मिनट पैदल-दूरी पर ही तो था उसका घर। झाड़ू-पोंछा, बर्तन के अलावा सब्ज़ी भी काट देती थी और घर के हर छोटे-मोटे काम भी कर देती थी, अंजलि का बायाँ हाथ थी सेल्वी।
उसने अंदर से रुपए लाकर बाहर गमले में रख दिए। रुपए लेने सेल्वी नीचे झुकी तो रुमाल नाक से नीचे गिर गया। अंजलि को दिखाई दिया उसका सूजा हुआ व नीला पड़ा वही चेहरा जो हर सोमवार को वह देखा करती थी। अक़्सर रविवार को शराब के लिए पैसों के झगड़े में उसका यही हाल करता था सेल्वी का शराबी पति। परसों उसने सेल्वी को छेड़ा भी था, "घर में रहकर निखर गई हो, तुम मोटी हो गई और देखो मैं तुम्हारे बिना कितनी पतली हो गई हूँ।"
इस पर लजाते हुए उसने कहा था, "वो आजकल मेरा मर्द झगड़ा नहीं करता।"
किंतु आज . . .
उसके जाने के बाद दरवाज़ा बंद कर सोफ़े पर बैठ वह टीवी देखने लगी जिस पर शराब की दुकानों के बाहर लगी भीड़ ने किस तरह सामाजिक दूरियों की धज्जियाँ उड़ा दीं, पर ज़ोरदार राजनीतिक बहस चल रही थी। और अंजलि सोच रही थी कि लॉक डाउन में शराब की दुकानें खुलने से भूख और पति की दोहरी मार झेलने वाली इन ग़रीब औरतों की सामाजिक बदहाली की चर्चा भला कौन से चैनल में हो रही होगी!
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टिप्पणियाँ
डॉ पदमावती 2021/07/30 05:44 PM
यथार्थ का जीवंत चित्रण । घर घर की कहानी । हर घर की नौकरानी यही पीड़ा झेलतीं है ,सभी नहीं तो लगभग सभी । लेकिन लगता है कि शोषण तब होता रहेगा जब तक नारी सहिष्णु बनी रहेगी । कमाए भी वही मार खाए भी वही । अब बस ! ज़रूरी है आवाज़ उठ। हाल ही में ऐसे ही प्रकरण से सामना हुआ । अरबन क्चिलेप की बाथरूम क्लीनर। उसने आपकी कहानी की आपबीती सुना दी लेकिन अच्ंभा तब हुआ जब जाते हुए पूछने लगी,मैडम डिवोर्स कैसे लेते हैं? अनपढ़ थी लेकिन सचेत हो रही थी । मार्मिक चित्रण बधाई ।
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पाण्डेय सरिता 2021/08/03 11:49 AM
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