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रचनाकार और समाज

रचनाकार और समाज अलग नहीं अपितु अभिन्न हैं। रचनाकार समाज की देन है और रचनाकार की रचना उसी समाज का प्रतिबिंब होती है। रचनाकार और समाज का अंतर्संबंध ऐसे होता है जैसे जल में मछली। 

सामाजिक परिवेशजन्य समस्याओं और संघर्षों की अनुभूतियों से मन में उपजनेवाले अनेक सवालों के समाधान की तलाश में रचना कर्म में प्रवृत्त होता है एक रचनाकार। एक साधारण मनुष्य और रचनाकार में फ़र्क़ होता है वैचारिक रचनात्मक कौशल का। भाव तो हर एक में होते हैं मगर रचनाकार की संवेदना भावों के आगे जाकर उसे वैचारिक आलोड़न तक ले जाती है और कल्पना कौशल के आधार पर वह गढ़ता है कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि साहित्यिक विधा। 

रचनाकार भावुक होता है। आसपास के परिवेश में घटने वाली घटनाओं का वह या तो भोक्ता होता है अथवा साक्षी। इन परिस्थितियों का उसके मानस पर गहरा प्रभाव पड़ता है जो उसके अवचेतन में गहरे बस जाती है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक युंग ने, ‘नव के अवचेतन संभाग को सृजनशीलता की कृति कहा है‌’। अतःकहा जा सकता है कि रचनाकार की अंतः वेदना रचना धर्मिता का मूल तत्व होती है। कहा भी गया है कि ‘आह से उपजा होगा पहला गान’!

रचनाकार की रचना में समाज अनिवार्य रूप से उपस्थित रहता है। दर्पण के सामने खड़े होने पर हमारा आभासी प्रतिबिंब दिखाई देता है। इसमें हमें हमारी कमियाँ भी दृष्टिगोचर होती हैं और हम उसे सुधारने में लग जाते हैं। सजने सँवरने के लिए दर्पण का प्रयोग यथार्थ में कमियों को दूर करने के प्रयोजन के लिए ही किया जाता है। साहित्य समाज का दर्पण है अतः प्रतिबिंब देखना मात्र नहीं अपितु उसमें उपस्थित छवि को सुधारने का प्रयास करना ही साहित्य का सामाजिक सरोकार होता है‌‌। वस्तुतः रचनाकार समाज सुधार का प्रणेता होता है इसीलिए क़लम की ताक़त को तलवार से भी अधिक ताक़तवर माना गया है। 

इतिहास उठाकर देखें तो भी यही पता चलता है कि सामाजिक सुधार के लिए आवश्यक बदलाव, क्रांति की मशाल क़लम ने ही सदा जलाई है, वह भारत का स्वाधीनता संग्राम हो या फिर स्वतंत्र भारत का कोई जन आंदोलन। 

रचनाकार समाज की गंदगी और बुराइयों को साफ़ करना चाहता है, विद्रूपताओं और विसंगतियों को दूर करना चाहता है और असमानताओं को समान करना चाहता है। इस प्रक्रिया में वह एक आदर्श समाज की संकल्पना करता है। जैनेंद्र का भी मानना है कि ‘साहित्य इस प्रकार आदर्श को यथार्थ से और यथार्थ को आदर्श से तोलता और जोड़ता रहता है।’ यही रचनाकार का साहित्यिक प्रयोजन होता है। इसके अभाव में रचनाकार एक श्रेष्ठ साहित्यकार कदापि नहीं हो सकता है। 

समकालीन समाज के मनोभावों को संवेदना सहित उद्घाटित करने वाली रचना समाज के अधिक समीप होती है अतः वह कालजयी बन जाती है। प्रेमचंद के उपन्यासों में शोषित किसानों की व्यथा, सामाजिक विकारों से ग्रस्त एवं वर्जनाओं से त्रस्त नारी की पीड़ा सर्वकालिक है अतः वह अमर साहित्य है। 

रचनाकार का साध्य और साधन समाज है। रचनाकार की साहित्यिक रचना समसामयिक इतिहास बन जाती है क्योंकि रचनाकार साक्षी होता है अपने समय का, सामाजिक गतिविधियों का, घटनाक्रमों का। रचनाकार एक शिल्पकार है जो क़लम की छैनी से मन पर प्रहार करता है विचारों को तराशने के लिए, कल्पना शक्ति से सुंदर समाज को गढ़ता है मानव जीवन को मूल्यवान बनाने के लिए। उसके चिंतन-मनन से तादात्म्य रखने वाले सुधी पाठक सामाजिक नवोन्मेष के सक्रिय भागीदार बन जाते हैं। यही एक रचनाकार की रचना धर्मिता का सार्थक प्रयोजन होता हैै सामाजिक हित होता है। 

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