कुछ खो गया है
काव्य साहित्य | कविता अवनीश कश्यप15 Sep 2024 (अंक: 261, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
कुछ खो गया है,
वो दरवाज़ा, वो दराज़,
जहाँ हुआ करती थी मेरी किताबें,
धूल के बग़ैर, पन्नों की ख़ुश्बू लेकर,
चमकती-धमकती मेरे चादर में लिपटी,
हर कोने कमरे के, जैसे उससे नायाब,
न कुछ था, न मैं समझता,
न जाने कहाँ गुम हो गया है।
न जाने कहाँ गुम हैं वो दिन भी जहाँ,
पहली बारिश और मिट्टी के मिलाप की महक में,
मैं अलसाता, पन्नों को पलटता,
खोया हुआ कहानियों में, किरदारों में,
अपने ख़ुशियों के संग मन में नाचता फिरता,
माँ की आवाज़ों को सुन,
पाँच मिनट और कह अल्हड़ता से,
फिर क़िस्सों को सीने से लगा लेता,
साथ रेडियो की धीमी आवाज़ में चलती, 'आप की फ़रमाइश'
न जाने कितनी बेजोड़ माहौल करती तब,
दुनिया से परे, ज़िन्दगी में सब पाने जैसा एहसास
न जाने कहाँ खो गया है,
जैसे सब खो गया है।
नींद से उठ गया हूँ, सपनों को खोकर,
ख़ामख़ाह आज़ादी में उसे ढूँढ़ता सुन्न हो कर,
जैसे सब खो गया है,
बिना पता के, बिना बता के,
ख़ालीपन देकर, समय में भटकाता,
न जाने कहाँ गुम हो गया है,
जैसे सब खो गया है।
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