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फिर मिलेंगे

 

फिर मिलेंगे—
जब तुमसे तुम्हारे शहर से,
शायद तब,
तुम भी उसी भीड़ का 
हिस्सा बन रह जाओगे, 
जो टकराती है, झल्लाती है, 
पर कभी अपनापन नहीं बाँटती। 
 
मन्नतों से मुलाक़ात जैसी होगी, 
तुम्हारे शहर की अपनी आख़िरी टिकट, 
ख़रीद लाऊँगा! 
और उस सफ़र को तौलूँगा पुराने सफ़र से, 
जब हमारी बातें थीं, 
जिस हमारे वक़्त जज़्बात थे। 
 
उस दिन फिर 
उन गलियों और क़स्बों से मिलूँगा, 
जहाँ हमारी मुलाक़ात और 
मन का ठहराव था, 
और फिर चलते-चलते 
जब थक जाएगी मेरी परछाईं, 
दूर से देखूँगा तुम्हें, 
जैसे अनजान हूँ तुमसे, 
थरथराएँगे क़दम, कँपकँपाएँगे होंठ, 
मुस्काता—उन यादों से— 
आँसुओं में भीग जाऊँगा, 
पर मोड़ लूँगा वो क़दम जो 
तुमसे मिलने को बेताब होगा। 
 
वो तुम्हारा चेहरा जो तब भी 
चमकता होगा शायद, 
वो तुम्हारी आँखें जो तब भी 
मोड़ती होंगी रास्ते कई मुसाफ़िरों के, 
उनसे मिल वो वजह तुम तक छोड़ जाऊँगा, 
जो मेरे ज़ेहन और क़लमों से— 
कभी हटी ही नहीं शायद! 
 
फिर मिलेंगे जब तुमसे—तुम्हारे शहर से, 
शायद तब तुम भी 
उसी भीड़ का हिस्सा बन रह जाओगे। 

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