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सर, क्या आप ख़ुश हैं?

 

राजीव वर्मा लखनऊ के एक निजी अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल में गणित पढ़ाते हैं। 

योग्यता: स्नातकोत्तर, बी.एड. 

वेतन: ₹14, 500 प्रति माह (12 महीने नहीं, केवल सत्र के 10 महीने)। 

रहने का स्थान: स्कूल के पास एक दो कमरे का किराए का मकान। 

परिवार: पत्नी सुरभि (गृहिणी) और एक बेटी अनाया (कक्षा 3 में पढ़ती है, उसी स्कूल में रियायत से)। 

राजीव हर दिन सुबह 5 बजे उठते हैं। किसी अलार्म से नहीं, बल्कि किचन से आती टपकती नल की आवाज़ से। गैस पर चाय चढ़ाते हैं, बेटी के कपड़े प्रेस करते हैं, फिर मोटरसाइकिल धोते हैं जो अब 12 साल पुरानी है और बहुत बार जवाब दे चुकी है। 

7:45 तक स्कूल पहुँच जाते हैं। 

बच्चे “गुड मॉर्निंग सर” कह कर झुकते हैं, लेकिन उनके पैर की चप्पलें अक्सर उधड़ी होती हैं। 

राजीव मुस्कुराते हैं—आदत है। 

राजीव की गणित पढ़ाने की शैली स्कूल में मशहूर है। 

बच्चे उन्हें पसंद करते हैं, कुछ तो ट्यूशन के लिए भी घर आते हैं। 

लेकिन स्कूल प्रबंधन उन्हें सिर्फ़ एक मामूली कर्मचारी मानता है। कभी वेतन समय पर नहीं आता, कभी दो महीने का बोनस रोक लिया जाता है। अक्सर कहा जाता है, “सर, आपका पैशन ही आपका रिवॉर्ड है।” 

और राजीव, मजबूरी में, इस जुमले को मान भी लेते हैं। 

पत्नी सुरभि कभी-कभी कहती है, “कम से कम इतना तो कमा पाते कि एक फ़्रिज ला पाते। हर बार उधार क्यों लेना पड़ता है?” 

राजीव चुप हो जाते हैं। 

बेटी अनाया कहती है— “पापा, मेरे दोस्त गर्मी में कश्मीर घूमने जा रहे हैं . . . हम कब जाएँगे?” 

राजीव हँसकर जवाब देते हैं, “बेटा, हम कहीं और घूमेंगे . . . लाइब्रेरी चलेंगे।” 

अनाया चुप हो जाती है क्योंकि उसे अब पता चल चुका है कि उसके पापा ‘कहते ज़रूर हैं’, लेकिन कभी ले नहीं जाते। 

एक दिन स्कूल की प्रिंसिपल ने उन्हें मैनेजमेंट की मीटिंग में टोक दिया: “राजीव सर, आप हर बार बच्चों को ‘सोचने’ को क्यों कहते हैं? बस रटवा दीजिए न!” 

उस दिन राजीव के भीतर कुछ टूट गया। उसी शाम उन्होंने घर आकर रेखा को कहा—“मैं ये नौकरी छोड़ना चाहता हूँ।” 

रेखा ने शांत लहजे में कहा—“अगले महीने किराया कौन देगा?” 

राजीव फिर चुप हो गए। जैसे एक शिक्षक नहीं, एक क़ैदी हों—जो ख़ुद ही अपनी कुर्सी से बँधा हुआ है। 

एक दिन नौवीं कक्षा का छात्र राहुल उनसे पूछ बैठा—“सर, आप इतना अच्छा पढ़ाते हैं, तो आप ख़ुद इतने परेशान क्यों रहते हैं? क्या आप ख़ुश हैं?” 

राजीव ठिठक गए। उनके भीतर कुछ काँप गया। अब तक किसी ने यह सवाल नहीं पूछा था। 

उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा, “तुम लोग अच्छे इंसान बन जाना बेटा . . . फिर शायद हम जैसे लोग ख़ुश हो पाएँगे।” 

राहुल कुछ नहीं बोला। लेकिन उस दिन वो समझ गया कि “गुरु जी” सिर्फ़ किताबें नहीं पढ़ाते—वो ख़ुद एक खुली किताब हैं, जिसमें हर पन्ना अधूरा है। 

राजीव अब भी हर दिन स्कूल जाते हैं। 

बेटी अब सवाल कम करती है। 

पत्नी अब हिसाब माँगती नहीं। 

मकान मालिक अब उधार पर यक़ीन नहीं करता। 

लेकिन राजीव अब भी मुस्कुराते हैं, हर नए बच्चे को गणित के साथ ज़िंदगी का समीकरण समझाते हैं। 

कभी-कभी सोचते हैं—काश, ज़िंदगी भी कोई बोर्ड परीक्षा होती, जिसमें मेहनत का नंबर ज़रूर मिलता। 

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