आत्मा की आहट
काव्य साहित्य | कविता आलोक कौशिक1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
नीले आकाश के विस्तार में
जब बादल थककर गिरते हैं धरती की गोद में,
तब एक आवाज़ उठती है—
“क्या तुमने मुझे सच में देखा है?”
पत्तों से गुज़रती हवा
सिर्फ़ सरसराहट नहीं,
वह अनकहे सवालों का बोझ लेकर चलती है।
नदियाँ
अपनी धारा में
सदियों के दुःख और स्वप्नों को बहाती हैं,
पर कोई किनारा
कभी उनके मौन को पूरी तरह सुन नहीं पाता।
मनुष्य—
अपनी ही बनाई हुई दीवारों में क़ैद,
अपने ही प्रश्नों से घायल,
अपने ही उत्तरों से असंतुष्ट।
फिर भी भीतर कहीं
एक चिंगारी जलती है
जो अँधेरे से घबराती नहीं,
बल्कि उसे पहचानकर
प्रकाश की खोज करती है।
जीवन का सार
किसी बड़ी विजय में नहीं,
बल्कि उस क्षण में छिपा है
जब कोई आँखों में आँखें डालकर कहता है—
“मैं तुम्हें समझता हूँ।”
यही समझ
यही आत्मीयता
हमें मनुष्य बनाती है।
आत्मा की आहट
कभी शब्द नहीं माँगती,
वह बस चाहती है
कि कोई ठहरकर सुने-
और उस मौन में
सभी प्रश्न
धीरे-धीरे उत्तर में बदल जाएँ।
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