बनारस की गली में
काव्य साहित्य | गीत-नवगीत आलोक कौशिक15 Apr 2020 (अंक: 154, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
बनारस की गली में
दिखी एक लड़की
देखते ही सीने में
आग एक भड़की
कमर की लचक से
मुड़ती थी गंगा
दिखती थी भोली सी
पहन के लहँगा
मिलेगी वो फिर से
दायीं आँख फड़की
बनारस की गली में...
पुजारी मैं मंदिर का
कन्या वो कुँआरी
निंदिया भी आए ना
कैसी ये बीमारी
कहूँ क्या जब से
दिल बनके धड़की
बनारस की गली में...
मालूम ना शहर है
घर ना ठिकाना
लगाके ये दिल मैं
बना हूँ दीवाना
दीदार को अब से
खुली रहती खिड़की
बनारस की गली में...
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अंतिम गीत लिखे जाता हूँ
गीत-नवगीत | स्व. राकेश खण्डेलवालविदित नहीं लेखनी उँगलियों का कल साथ निभाये…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अच्छा इंसान
- आलिंगन (आलोक कौशिक)
- उन्हें भी दिखाओ
- एक दिन मंज़िल मिल जाएगी
- कवि हो तुम
- कारगिल विजय
- किसान की व्यथा
- कुछ ऐसा करो इस नूतन वर्ष
- क्योंकि मैं सत्य हूँ
- गणतंत्र
- चल! इम्तिहान देते हैं
- जय श्री राम
- जीवन (आलोक कौशिक)
- तीन लोग
- तुम मानव नहीं हो!
- देखो! ऐसा है हमारा बिहार
- नन्हे राजकुमार
- निर्धन
- पलायन का जन्म
- पिता के अश्रु
- प्रकृति
- प्रेम
- प्रेम दिवस
- प्रेम परिधि
- बहन
- बारिश (आलोक कौशिक)
- भारत में
- मेरे जाने के बाद
- युवा
- श्री कृष्ण
- सरस्वती वंदना
- सावन (आलोक कौशिक)
- साहित्य के संकट
- हनुमान स्तुति
- हे हंसवाहिनी माँ
- होली
हास्य-व्यंग्य कविता
बाल साहित्य कविता
लघुकथा
कहानी
गीत-नवगीत
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं