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छू लिया आसमान, खो दी ज़मीन

 

उत्तर प्रदेश के एक मध्यमवर्गीय परिवार की बेटी संजना सिंह पत्रकार बनने का सपना आँखों में लेकर दिल्ली आई थी— सिस्टम से सवाल करने का सपना, पीड़ितों की आवाज़ बनने की उम्मीद। 

शुरूआत एक लोकल पोर्टल से हुई। दो साल तक उसने ईमानदारी से काम किया—अस्पतालों में बदहाल व्यवस्था, स्कूलों में भ्रष्टाचार, औरतों पर अत्याचार—सब कवर किया। 

लेकिन धीरे-धीरे वो समझने लगी कि सच्चाई न बिकती है, न सुनी जाती है। उसने देखा, उन पत्रकारों को प्रमोशन, शो और इनाम मिलते हैं जो सत्ता के क़रीबी हैं। 

एक वरिष्ठ पत्रकार के ज़रिए एक मंत्री से उसकी पहचान बनी। पहले एक इंटरव्यू, फिर निजी डिनर, फिर रातों के सौदे। मंत्री उसे बड़े चैनल में लाया, फिर और नेता आए—किसी ने इनसाइड डॉक्युमेंट दिए, किसी ने विदेश ट्रिप। 

धीरे-धीरे संजना अब चैनल की स्टार बन गई। वह बहसें तय करती थी, सरकार की नीतियों को सही ठहराती थी, नेताओं के ‘अविश्वसनीय सूत्रों’ तक पहुँचती थी। 

हर रिपोर्ट में सत्ता की भाषा बोलती थी और हर रात किसी न किसी की ‘क़रीबी’ बनती जा रही थी। 

उसे अब यह सब ग़लत नहीं लगता था। “सब कर रहे हैं, मैं भी कर रही हूँ। करियर में भावुकता नहीं चलती।” वो ख़ुद को कहती थी। 

पति शेखर एक सॉफ़्टवेयर इंजीनियर था, सरल और संवेदनशील। शुरूआत में उसने समझाने की कोशिश की, लेकिन फिर एक दिन बिना बहस के चला गया। 

“तुम अब वो संजना नहीं रही, जिससे मैंने शादी की थी,” उसने कहा। 

बेटा अनुभव, 18 साल का हो चुका था। माँ से दूरी बनाकर रहता, बाहर के दोस्तों में जीता। वो जानता था कि उसकी माँ किसी और की ‘बहुत अपनी’ बन चुकी है। 

बेटी कीर्ति, 16 की हो रही थी। चुपचाप, मौन और अकेली। संजना के पास अपने बच्चों से बात करने का समय नहीं था— वह कैमरे पर व्यस्त थी, स्क्रीन पर ‘देश बचा’ रही थी। 

एक रात पार्टी से लौटते समय अनुभव की कार एक ट्रक से टकरा गई। तेज़ रफ़्तार, शराब, और अकेलापन-सबने उसे लील लिया। 

संजना अस्पताल पहुँची तो डॉक्टर ने बस इतना कहा, “हमें माफ़ कीजिए, बहुत ख़ून बह चुका था।” 

उसने बेटे की ठंडी उँगलियाँ थामकर देखा—जैसे कोई सवाल कर रहा हो, बिना बोले। 

बेटे के गुज़र जाने के तक़रीबन 6 महीने बाद संजना को पता चला कि कीर्ति का घर के नौकर के साथ शारीरिक सम्बन्ध है। एक बेटी, जो माँ से स्नेह नहीं पा सकी, उसे नौकर में अपनापन मिला। 

संजना ने नौकर को घर से निकाला, बेटी को डाँटा। 

बेटी ने बस एक वाक्य कहा—“आप जब सत्ता के लोगों के साथ सो सकती हैं, तो मैं क्यों नहीं माँ? 

वो जवाब नहीं दे पाई। 

कुछ महीनों बाद लगातार थकान और कमज़ोरी की शिकायत पर संजना ने डॉक्टर के निर्देशानुसार टेस्ट करवाया। 

रिपोर्ट आई—“ब्रेस्ट कैंसर, स्टेज थ्री।” 

उस दिन पहली बार वह कैमरे के सामने रोई—अपने लिए नहीं, उस खोखलेपन के लिए जिसे अब तक वो ‘सफलता’ समझती थी। 

चैनल ने धीरे-धीरे उसे स्क्रीन से हटा दिया। 

नेताओं ने फ़ोन उठाने बंद कर दिए। 

वो आवाज़ जो सत्ता की प्रवक्ता बन गई थी, अब किसी को सुनाई नहीं देती थी। 

बेटा मर चुका था। 

बेटी हॉस्टल में थी, और अब किसी भी कॉल का जवाब नहीं देती। 

पति अब किसी और शहर में था—अपनी शान्ति के साथ। 

संजना के पास सिर्फ़ एक फ़्लैट था—जिसकी दीवारों पर अवॉर्ड लटके थे, लेकिन कमरे में कोई साँस लेने वाला नहीं था। 

कीमोथेरेपी के बाद जब बाल झड़ने लगे, आईने में देखकर वो फूट पड़ी। 

“मैंने क्या बचाया?” उसने ख़ुद से पूछा। 

पैसे थे, लेकिन इलाज में कोई दिलासा देने वाला नहीं था। 

पहचान थी, लेकिन पहचानने वाला कोई नहीं। 

बोलने की ताक़त थी, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं। 

आज वह अकेली रहती है, एक छोटे से कमरे में। 

पुरानी रिपोर्ट देखती है, ख़बरें सुनती है, और कभी-कभी टीवी पर उसी शो की एंकर को देखती है जिस पर कभी वह थी। 

कोई उसे अब नहीं बुलाता। 

ना किसी डिबेट में, ना किसी समारोह में। 

उसका फ़ोन अब शायद सिर्फ़ डॉक्टर के रिमाइंडर के लिए बजता है। 

संजना को सब कुछ मिला—शोहरत, पैसा, सत्ता की निकटता, कैमरे की चमक। 

लेकिन जब ज़िंदगी ने सवाल पूछे—तो पास कोई जवाब नहीं था। 

पास कोई इंसान नहीं था। 

उसने धीरे-धीरे सब समझा—मानसिक शान्ति के बिना हर चीज़ एक बोझ बन जाती है। 

सत्ता से रिश्ते बना लेने से ज़िंदगी नहीं बनती—टूट जाती है। 

अब उसके पास बस एक चुप्पी है, जो रात को सबसे ऊँची आवाज़ में बोलती है—“काश थोड़ा कम सफल होती, थोड़ा ज़्यादा इंसान बनी रहती . . .”

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