तुम मानव नहीं हो!
काव्य साहित्य | कविता आलोक कौशिक1 Mar 2025 (अंक: 272, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
देख कर दूजे का हर्ष
गर तुम्हें होता है कर्ष
लगाए रहते मुखौटे
सह ना सकते उत्कर्ष
तो मान लो
तुम मानव नहीं हो!
देकर ग़ैरों को दुःख
यदि तुम पाते हो सुख
शकुनी तेरे हृदय में
कृष्ण जपता हो मुख
तो मान लो
तुम मानव नहीं हो!
कर ना सको अभिनंदन
कर्म तुम्हारा निंदन
मन मलिन तुम्हारा
माथे पे लगाते चंदन
तो मान लो
तुम मानव नहीं हो!
करते वाणी से विदीर्ण
सोच तुम्हारी संकीर्ण
साथी का सहारा ना बनते
पथ बनाते कंटकाकीर्ण
तो मान लो
तुम मानव नहीं हो!
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