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शिवार्पण: सावन की प्रेमगाथा

 

बरखा की रुनझुन में जलते हैं दीप शिवोभाव के 
मन के अंतरतम तल में कुछ स्वर गूँजे सुभाव के 
नीलाकाश लहराता बन जटा-जूट की धारा 
पावन सावन उतरे जैसे शिव का हो इशारा 
 
चरणों में गिरती बूँदें हैं पार्वती की वंदना 
हर बूँद में छिपी मिलन की मौन-मधुर वेदना 
बेलपत्र पर अंकित है प्रेम का अक्षत विधान 
सत्य, तपस्या, त्याग में झलकता शिव का मान 
 
ओ रुद्र! तू केवल त्रिनेत्रधारी महाकाल नहीं 
तू वो भी है जो प्रेम में अर्घ्य बन बहता कहीं 
तेरी जटाओं में उलझी, कोई आकांक्षा सोती है 
हर धड़कन में पार्वती की भक्ति रोपित होती है 
 
सावन की बूँदें जब गिरतीं शिखरों की चोटी पर 
मन झूमे जैसे रुद्र नाचे प्रिय की मधुर प्रीति पर 
बूँद बनी व्रतधारी नारी की निष्कलंक पुकार 
उसी में बसा मिला प्रेम का शिवसिंचित संसार 
 
शिव केवल त्रिलोचन नहीं, वह प्रणय का प्रारंभ भी है 
जो पिघल जाए प्रेम में, वही सच्चा आरंभ भी है 
ना कोई माँग, ना कोई युद्ध, ना कोई आकर्षण 
बस एक मौन आग्रह और फिर अनंत समर्पण 
 
प्रेम, जहाँ शिव स्वयं पिघलते हैं, पार्वती बनकर 
और पार्वती तिरोहित होती है शिवत्व को पाकर 
जहाँ देह विलीन, आत्मा में खिलते शाश्वत राग 
वहाँ सावन गाता है शिव-पार्वती का अनुराग। 

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