बस! एक रूह हूँ मैं
काव्य साहित्य | कविता डॉ. अंकिता गुप्ता1 Oct 2020
सर्दियों की सुबह में,
पत्ते पर चमकती ओस की बूँद हूँ मैं!
सूरज की किरण के साथ, माँ के चिल्लाने की,
उस आवाज़ की धुन हूँ मैं!
उसी धुन के साथ उठती हुई, माँ को देख,
खिलखिलाती हँसी हूँ मैं!
स्कूल से घर वापिस आकर,
सुनाती हुई कहानियों के बोल हूँ मैं!
शाम को आसमान मेंउड़ते हुए,
उन परिंदों सी आज़ाद हूँ मैं!
समय के साथ बढ़ते हुए,
सपनों से भरी आँखों की चमक हूँ मैं!
पग पग पहाड़ों पर चलते हुए,
बादलों को छूने वाली मंज़िल हूँ मैं!
विदा होते समय पापा के,
आँखों से गिरा उस आसूँ का मोती हूँ मैं!
दूसरे के घर को ख़ुशहाल करती,
होली के दिन का गुलाल हूँ में !
कल कल करती हुई, सागर से मिलती एक
हँसती हुई नदी की लहर हूँ मैं!
जीवन भर सभी को प्यार से बाँधे हुए,
एक पेड़ की जड़ हूँ मैं!
ज़िंदगी की इस किताब के आख़िरी पन्ने का,
लिखा हुआ सचा वादा हूँ मैं!
हाँ! एक स्त्री हूँ मैं!
बस! एक रूह हूँ मैं!
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