बुरे समय की आँधियाँ
काव्य साहित्य | दोहे प्रियंका सौरभ1 Jan 2021
तेज प्रभाकर का ढले, जब आती है शाम
रहा सिकन्दर का कहाँ, सदा एक सा नाम
उगते सूरज को करे, दुनिया सदा सलाम
नया कलेंडर साल का, लगता जैसे राम
तिनका-तिनका उड़ चले, छप्पर का अभिमान
बुरे समय की आँधियाँ, तोड़े सभी गुमान
तिथियाँ बदले पल बदले, बदलेंगे सब ढंग
खो जायेगा एक दिन, सौरभ तन का रंग
पाकर भी कुछ ना मिले, होकर जिम्मेवार
कितना धोखेबाज़ है, सौरभ ये किरदार
प्रेम दिया या दर्द हो, सबका है आभार
जीवन पथ पर है तभी, मिला मुझे विस्तार
हम पत्तों को सींचते, पर जड़ है बीमार
सौरभ कैसे हो बता, ऐसे वृक्ष सुधार
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