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त्रिलोक सिंह ठकुरेला के दोहे - 1

ख़ुद ही विष विपणन करे, ख़ुद ढूँड़े उपचार।
नई सदी की सोच में, जीवन है बाज़ार॥

 

पुरवाई मदमस्त हो, रही रागिनी छेड़।
बाहें बाहों में लिए, झूम रहे हैं पेड़॥

 

फूल हँसे, भँवरे  झुके, फैली प्रेम-सुगंध।
मन के काग़ज़ पर हुए, प्रीति भरे अनुबंध॥

 

चकाचौंध है, शब्द हैं, मुस्कानें, मनुहार।
किंतु भाव से शून्य है, सजा धजा बाज़ार॥

 

 

बलशाली की तूलिका, मनमर्जी के चित्र।
पावन को पापी करे, पापी बने पवित्र॥

 

अधरों पर मुस्कान है, मन में गहरी पीर।
होठों पर ताला जडे़, रिश्तों की ज़ंजीर॥

 

जैसा मेरे पास था, मैंने दिया परोस।
चाहे अच्छाई चुनो, चाहे ढूँढ़ो दोष॥

 

मन ही रचता लोक को, सादा हो या भव्य।
जिसकी जैसी भावना, वैसा ही भवितव्य॥

 

लोकतंत्र के दौर में, आम नहीं है आम।
वह सत्ता के अश्व की, थामे हुए लगाम॥

 

उसका सरल स्वभाव है, लोग कहें मतिमंद।
इस कारण वह आजकल, सीख रहा छलछंद॥

 

गोत्र, वंश, कुल गौण हैं, कर्म दिलाते मान।
कांटों की अवहेलना, फूलों  का सम्मान॥
 

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