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त्रिलोक सिंह ठकुरेला के दोहे - 2

घुमड़े बादल नेह के, धरती हुई अधीर।
प्रेम भरा मन देखकर, छम छम बरसा नीर॥

 

दुख सुमिरें तो दाह है, सुख सुमिरे आनन्द।
सभी विशेषण सोच के, ज्ञानी या मतिमंद॥

 

बहुत अधिक बदली नहीं, नारी की तस्वीर।
उसके हिस्से आज भी, वे आँसू, वह पीर॥

 

वह रोटी के गणित में, भूली यौवन, रूप।
लगी हुई है काम में, क्या छाया, क्या धूप॥

 

जिनके मन में भाव हैं, उनका ही भगवान।
जो च्युत श्रद्धा, प्रेम से, वे मद के प्रतिमान॥

 

नारी के सम्मान में, अनगिन गीत,कवित्त।
रंग रूप की परिधि से, आगे बढा न चित्त॥

 

रही न वह दीपावली, नहीं रहा वह फाग।
जीवन नीरस कर रही, विद्वेषों की आग॥

पाने की उम्मीद तक, मनुहारों के सत्र।
दिखे स्वार्थ सम्बंध ही, यत्र तत्र सर्वत्र॥


संदेशे उनके यही, करें अपरिग्रह लोग।
उनके जीवन में रहैं, सुख-सुविधाएं, भोग॥

 

सारा जगत कुटुंब है, सुने गए उपदेश।
खंड खंड में हम बंटे, बहु भाषा, बहु वेश॥


जब से सीमित हो गए, खुद तक सभी विकल्प।
जीवन से ग़ायब हुए, सुखपूरित संकल्प॥

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