दिनचर्या
काव्य साहित्य | कविता सत्येंद्र कुमार मिश्र ’शरत्’1 Nov 2020 (अंक: 168, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
वही रोज़ की
बंधी-बँधाई दिनचर्या है प्रभु,
सुबह देर से उठना,
जागते ही
सबसे पहले मोबाइल उठाना,
न चाहते हुए भी
एक-आध घंटा
चैटिंग-सैटिंग करना।
यदि अख़बार आया हो
तो
सबसे पहले
उसमें युवा पेज देखना।
कुछ खा पीकर
किताबों में
सिर खपाना
जब तक
खोपड़ी की नस-नस पिघलने न लगे,
और बीच-बीच में
मोबाइल को देखते रहना।
सप्ताह आध सप्ताह में
कभी
याद आ जाए तो
विश्वविद्यालय का चक्कर लगा आना।
दोपहर में,
दाल-भात-चोखा में ही
छप्पन भोग की कल्पना करना।
खा-पीकर दो घंटे की भरपूर नींद लेना।
सूरज डूब रहा है
बक्शी बाँध,
नागवासुकी मंदिर ,
गंगा के किनारे
भीड़ बढ़ने लगी है
टहलने का
और दड़बे से
बाहर निकलने का
समय हो गया है।
किसी चाय की
दुकान पर
दीये से भी छोटे कुल्हड़ में
चाय पीते हुए
जूनियर के बीच
अपने लम्बे इलाहाबादी जीवन का
अनुभव बखानना।
सब्ज़ी लेकर
देर रात वापस आना
मन करे तो कुछ पढ़ना
नहीं तो खाना खाकर
यदि हों तो
देर रात तक
महिला मित्रों से चैटिंग करना।
और सो जाना।
उम्र का पता नहीं
समय अच्छे से कट
रहा है इलाहाबाद में।
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