मछलियाँ
काव्य साहित्य | कविता सत्येंद्र कुमार मिश्र ’शरत्’15 Oct 2019
अब कभी
देखता हूँ
बिजली की चमक
बाँधती नहीं मन को,
खींच लेती है
अपनी ओर
बरबस
तुम्हारी दंतुरित मुस्कान।
जब से देखी है
तुम्हारे चेहरे की चमक,
भूल गया हूँ,
चैत्र की चाँदनी रातें।
मादकता
चपलता
तेरे तन की सुगंध,
जैसे ज़िंदा हो गया है
कामदेव,
और
अपने पाँचों बाणों से
मुझे एक साथ
बेध रहा हो।
तेरी आँखों की
मछलियाँ,
मुझे घूर रही हैं,
भेद रहीं हैं,
सदियों से।
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