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एक फोन कॉल    

बड़ी माँ और उसके बीच पसरी एक लंबी संवादहीनता की सूखी धरती में कुछ हरे तिनकों ने अपना सर उठाया था इधर ईशा को उन्होंने कई बार कॉल किया था जिससे उसे पता चला था कि अब उनकी तबीयत ठीक नहीं रह रही है। और उनकी उम्र भी तो हो गई थी सत्तर के ऊपर! आख़िर बुढ़ापा कहते किसको हैं? अब इस उम्र में कोई कितना स्वस्थ रह सकता है! उन्ह कई बीमारियों ने जकड़ रखा था, लेकिन अपनी जिजीविषा की बदौलत वे जिये जा रही थीं। 

हर बार उनसे बात करने के बाद ईशा अनायास ही अपने अतीत के उस हिस्से को पगुराने लगती थी जिसके साथ बड़ी माँ का होना जुड़ा हुआ था। उसका परिवार संयुक्त परिवार था। ईशा के पिता दो भाई थे और दोनों ही साथ रहते थे। ईशा की माँ चूँकि ओहदे में बड़ी माँ के बाद आती थीं, इसलिए घर-गृहस्थी के सारे सूत्र बड़ी माँ के हाथों में हुआ करते थे। बड़ी माँ और उसकी माँ के बीच एक ऐसा रिश्ता था जिससे घर के सारे कल-पुर्जे अपना काम करते रहते थे और किसी सदस्य को कभी शिकायत का मौका न मिलता। सुंदर-सुसज्जित घर में वह बड़ी माँ के दोनों बेटे प्रभाकर और प्रत्यूष यानी अपने दोनों चचेरे भाइयों के साथ पढ़ाई और खेलकूद करती सयानी हुई थी। रिश्तेदारों और जाने-पहचाने लोगों से भरा वह शहर चुंबक की तरह उसे खींचे रखता था।     

अपनी माँ और बड़ी माँ के बीच एक बहुत महीन विभाजक रेखा थी या शायद वह भी नहीं थी। अपनी माँ-जैसा ही स्नेह उसे बड़ी माँ से भी मिलता था। उसका वह पुश्तैनी घर, वह वातावरण उसके बचपन की हर तस्वीर के पीछे का कैनवास था जिसे वह अपने बचपन की यादों से अलग नहीं कर सकती थी।     

लेकिन समय के साथ कितना परिवर्तन आता चला गया! दोनों भाइयों को जाना पड़ा घर से दूर। इसके बाद बड़ी माँ को भी जाना पड़ा। उन्हें भी घर और शहर को छोड़े हुए एक लंबा अंतराल बीत चुका था- एक पूरा युग! और इस बीच सारी चीज़ें बदल गयी थीं- लोग, चेहरे, माहौल, संस्कार, घर, भाषा-बोली, जीवन-स्तर सबकुछ। उनका घर और उनका शहर, दोनों भीतर-बाहर से बदल गए थे। घर के बाहरी हिस्से को दूर कर आधुनिक रूप दे दिया गया था। भीतर भी आँगन में दो-एक कमरे बन गए थे। शहर के अपने-पराए लोग भी परिवर्तित हो गए थे। जिनसे उसके सुख-दुःख के तार जुड़े हुए थे वे रिश्तेदार या तो बीमारी की चपेट में आकर ज़िन्दगी की रफ़्तार-भरी सड़क के किनारे लाचार पड़े थे या पंचतत्व में विलीन हो चुके थे उनमें से कई अपना शहर छोड़कर अपने बच्चों के पास जाकर किसी अन्य नगर या महानगर में बस रहे थे। बच्चे जवानों में बदल गए थे। उनकी अपनी अलग सोच थी और अलग दुनिया थी। 

रोटियों की तलाश ने उसके दोनों चचेरे भाइयों- प्रभाकर और प्रत्यूष को दिल्ली में बसा दिया था। उनके जाने के बाद भी बड़ी माँ और बड़े पापा कितने विश्वास और आनंद के साथ इसके माता-पिता और पति के साथ रहते थे। ईशा अकेली संतान थी और उसके पति की नौकरी भी उसी शहर में थी। अतः उसे कहीं और जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। हँसी-ख़ुशी के इन्हीं दिनों के बीच एक दिन ऐसा आया जिसने बड़ी माँ की ज़िंदगी के सारे रंग सोख लिए और उन्हें बेरंग बना दिया। उसके बड़े पापा चल बसे जिसके कारण बड़ी माँ अकेली न होते हुए भी अकेली हो गयीं। तब प्रभाकर और प्रत्यूष ने उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए अपने पास बुला लेना सही समझा और आकर उन्हें ले गये।     

जाते समय अपना घर और शहर छूटने का ग़म बड़ी माँ को था! पता नहीं वे क्या महसूस कर रही थीं कि अँसुआयी आँखों से बार-बार कह रही थीं, "ईशा! अब पता नहीं मेरा यहाँ आना हो या ना हो”

“ऐसा क्यूँ कहती हैं बड़ी माँ? आप आते रहिएगा...। जब भी मन करे चले आइएगा मिलने...यहाँ रहने। कहीं जाते समय भी ऐसी बातें बोली जाती हैं क्या? और आप इस घर को भूल कैसे पाइयेगा?"

"वही तो... वही तो ईशा! कैसे भूलूँगी? एक उम्र जी चुकी हूँ इस घर में। इस घर में तुम्हारे बड़े पापा मुझे दुल्हन बनाकर लाए थे। कैसे दो बच्चे हो गये! तुम्हारे बड़े पापा और बच्चों के साथ एक ज़माना गुज़र गया इसी घर में और आज देखो! तुम्हारे बड़े पापा मुझे छोड़कर चले गये। उनके जाने के बाद भी इस घर से अपनापन बना हुआ है। पर भाग्य ऐसा कि आज इसे छोड़कर जाना पर रहा है जिनमें उनकी यादें बसी हुई हैं।"    

बाहर टैक्सी इंतज़ार कर रही थी। प्रत्यूष बड़ी माँ और उसके पास तटस्थ भाव से खड़ा था। बड़ी माँ इतनी भावुक हो गयी थीं कि ईशा को दुःख लगने लगा कि अब इनका स्नेहिल साहचर्य छूट रहा है। ईशा ने पैर छूये तो उन्होंने कहा ख़ुश रहो बात करती रहना फोन से.....।    

"हाँ बड़ी माँ,” कहकर रुआँसी होकर वह लिपट गयी उनसे। उसे अब भी याद आते हैं वे क्षण- उनकी आँखें डबडबायी हुई थीं। धीरे-घीरे पैर बढ़ाती हुई वे टैक्सी में बैठीं। फिर प्रत्यूष और प्रभाकर दोनों बैठे और टैक्सी चली गयी।     

उनके जाने के बाद से फोन करने का सिलसिला जारी रहा। एक-एक ख़बर यहाँ की वहाँ जाती और वहाँ की यहाँ आती। परंतु धीरे-धीरे दोनों ओर से संवाद कम होते चले गये। एक दिन फोन पर ही बड़ी माँ ने बताया कि वे घर का अपना हिस्सा बेच देना चाहती हैं।

इस सूचना के बाद प्रभाकर और प्रत्यूष दोनों घर आये थे। दिन-भर आँगन और कमरों में फीते ताने जाते। नापी-जोखी होती। शाम को बैठक में बात-चीत होती। एक अजीब-सा भारीपन हवा में तैर रहा था। इस बँटवारे में उसके माता-पिता की भी सहमति थी। वे माहौल को हल्का बनाये रखने की पूरी कोशिश में लगे हुए थे, क्योकि ऐसे मौक़ों पर विवाद या तनाव हो जाने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता था। ईशा अपने भाइयों को नाश्ते में बड़ी माँ की तरह लाल-लाल पराँठे बनाकर खिलाती रही थी। पर दोनों भाइयों के चेहरों पर उदासी की परत चढ़ी हुई थी। यह शायद उनके भीतर की कचोट थी जिसने उन दिनों उनको कम बोलने और अनमना रहने पर मजबूर कर दिया था। शायद अपनी मिट्टी..... अपना घर छोड़ने का ग़म। और ईशा से विदा लेते हुए, प्रत्यूष ने अपना चेहरा घुमा लिया था और प्रभाकर जल्दी-जल्दी सामान उठाकर चल दिया था यह कहते हुए, "ठीक है ईशा! तुम सबके साथ जल्दी आना। हमें तुम्हारे आने का इंतज़ार रहेगा।"    

वह उन्हें जाते हुए देखती रही थी। अब उनका इस शहर में कुछ भी नहीं बचा था। एक कोठरी तक नहीं। घर का अपना हिस्सा बेचकर ही उन लोगों ने शहर में फ़्लैट ख़रीदा था।

यहाँ से जाकर प्रभाकर और प्रत्यूष तो दिल्ली में रम गये थे। लेकिन बड़ी माँ के दिल में अपना घर छोड़ने की जो कचोट थी, वह बनी हुई थी। शुरू में जब उनके फोन आते तो वे उसके और उसके पति का हाल-चाल पूछतीं, अपने देवर-देवरानी का और साथ ही अड़ोस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों के बारे में भी जानना चाहतीं कि कौन कैसा है? क्या कर रहा है? पर धीरे-धीरे उनका वार्तालाप संक्षिप्त होता चला गया। कॉल आने का सिलसिला भी ख़त्म-सा हो गया। कभी उन लोगों की याद ज़ोर मारती तो ईशा फोन करती। कभी उनका भी आता। 

इधर कई सालों से ईशा की व्यस्तता भी बढ़ गयी थी। बड़ी माँ गयी थीं तो ईशा की शादी-भर हुई थी। उनके जाने के बाद वह दो बच्चो की माँ बन गयी थी और अब तो दोनों बच्चों की पढ़ाई को लेकर वह काफ़ी गंभीर हो चली थी। शारीरिक और मानसिक तौर पर व्यस्तता बढ़ गयी थी; क्योंकि अब उसे अपने माता-पिता को भी देखना पड़ रहा था वे भी बूढ़े हो चले थे। कभी डॉक्टर तो कभी दवा का चक्कर लगा ही रहता था। पति अक्सर दौरे पर रहता। इस कारण सारे मोर्चों पर वह अकेले ही जूझती रहती थी। 

जैसे-जैसे बड़ी माँ से उसकी संवादहीनता बढ़ती गयी, वैसे-वैसे उसे लगने लगा कि वे उससे बहुत दूर हो गयी हैं। कुछ वर्षों पहले तक तो लगता था कि उनके और उसके बीच बस एक फोन कॉल की दूरी है। परन्तु अब ऐसा नहीं महसूस होता था। वे एक अलग लोक में बसी हुई लगतीं।

इधर काफ़ी लंबे अंतराल बाद बड़ी माँ के ही कई कॉल आये थे जिसके कारण वह सोचने पर मजबूर हो गयी थी कि बड़ी माँ बार-बार उसे क्यों याद करती हैं?     

हर बार वही मुलायम स्नेह से सनी हुई आवाज़! उनसे बातें करने के बाद वह सोचने लगती कि वह अपनी ज़िन्दगी में इतना व्यस्त क्यों हो गयी है कि उसे बड़ी माँ को एक कॉल करना भी याद नहीं रहता? इधर के हर काल में उन्होंने कहा था कि अब उनकी तबीयत ठीक नहीं रहती। मधुमेह परेशान कर रहा है उन्हें। रक्तचाप भी।     

उसने पूछा भी था, "आप खाना तो ठीक खा रही हैं न? मेरा मतलब हैं खाने में मीठा, चावल, आलू वगैरह तो नहीं लेती हैं न?”

"हाँ ईशा! मेरे खाने का पूरा ध्यान रखती है सुगंधा।” सुगंधा उनकी बहू थी।     

"और दवा लेती हैं?”     

"हाँ, वह भी लेती हूँ। फिर भी शुगर बढ़ा रहता है। क्या करूँ?"

उनकी आवाज़ काँप रही थी। थोड़ी देर के लिए वे चुप हो गयीं। अब वह क्या जवाब दे इसका? जो करना है वह उनके बेटों और बहुओं को करना है। हज़ार मील दूर से तो वह सलाह ही दे सकती है!

हारकर ईशा ने कहा, "बड़ी माँ! आप सुबह में थोड़ा टहलती     क्यों नहीं? खुली हवा में टहलने से आपकी सेहत ठीक रहेगी। 

उन्होंने कहा, "कैसे टहलूँ? चाहती तो बहुत हूँ टहलना, घूमना-फिरना। पर अब मैं इतना चल-फिर भी नहीं पाती। बैठी रहती हूँ। कोई सहारा देकर बालकनी में बैठा देता है..।”    

यह सुनकर ईशा चुप हो गयी। उसे लगा कि वह कुछ ज़्यादा ही बोल गयी है। उसे ध्यान देना चाहिए कि इधर जो उनके कॉल आ रहे थे, उनमें उनकी आवाज़ काँपती रहती थी। अब वे सब के बारे में इतना पूछती भी नहीं थीं! अब वे जब फोन पर बातें करतीं तो लगता था किसी अँधेरी सुरंग से आवाज़ आ रही है- किसीको पुकारती हुई, कुछ तलाशती हुई। उस आवाज़ के सारे शब्द स्पष्ट होकर भी स्पष्ट नहीं होते थे। सब कह कर भी कुछ अनकहा-सा उनके गले में अटका रह जाता था जिसे सुनने और जानने को वह बेचैन हो जाती थी। 

इस बातचीत के लगभग पन्द्रह दिनों बाद गोधूलि में एक दिन फिर उनका कॉल आया। उस समय वह टीवी देख रही थी। रिंग हुआ तो उसने टीवी बंद कर दिया। उनकी आवाज़ बहुत अधिक काँप रही थी और वह साफ़ सुन सकती थी कि उनकी साँसें भी फूल रही थीं- 

"हलो... हलो... ईशा?"    

"हाँ बड़ी माँ! मैं बोल रही हूँ।”    

"कैसी हो.....?" यह "कैसी हो?" कहना जैसे आदतवश निकल गया था- वार्तालाप शुरू करने-भर के लिए।

"हाँ मैं ठीक हूँ। आप कैसी हैं?"

वह रुक-रुककर बोलीं, "मैं... ठीक...नहीं...हूँ...।“ उनकी आवाज़ टूट-टूटकर निकल रही थी और गला घरघरा रहा था। फिर ज़ोर-ज़ोर से साँस लेने की आवाज़ आने लगी।

घबराकर ईशा ने पूछा, "क्या हुआ आपको?..... क्या हुआ बड़ी माँ? अभी कहाँ हैं? क्या हो रहा है आप को? आप ठीक तो हैं न?"

"नहीं... मैं ठीक नहीं हूँ।” आवाज़ भारी हो गयी और उसके बाद एक चुप्पी छा गयी।     

ईशा भी दो-चार सेकंड चुप रही यह देखने के लिए कि उधर से क्या आवाज़ आती है? यद्यपि वह बहुत घबरा रही थी। उसे लग रहा था कि यह उनके जीवन का अंतिम संवाद है शायद। और अगर अंतिम संवाद है तो उनके अपनों को छोड़कर हज़ारों मील दूर बैठी ईशा के साथ क्यों? उसे लगा कि ऐसा न हो कि बड़ी माँ बेहोश हो गई हों और फोन छूटकर उनके हाथों से गिर पड़ा हो। कहीं उनकी धड़कन तो नहीं रुक गयी? उनका सिर एक ओर झूल तो नहीं गया? इस आवाज़ के साथ अजीब दृश्य की कल्पना करके वह बेचैन हो उठी। 

उसने घबराकर तेज़ आवाज़ में पूछा "बड़ी माँ! क्या हुआ आपको? बोलिये न? चुप क्यों हो गयीं?" 

थोड़ी देर के बाद उनकी हाँफती हुई आवाज़ सुनाई पड़ी, "मन बहुत घबरा रहा है ईशा!"

फोन पर फिर से उनकी आवाज सुनकर वह आश्वस्त हुई कि चलो वे जीवित तो हैं! ज़िन्दा हैं तो बात करके उन्हें समझाया जा सकता है कि उन्हें चैन मिले।     

“क्यों? क्यों मन घबरा रहा है आपका?" ईशा ने पूछा।     

"पता नहीं। ईशा! दिल बहुत घबरा रहा है।"    

उसे पूछना ही पड़ा, "क्या आप अकेली हैं? और लोग कहाँ हैं?"

"सुगंधा अपने कमरे में सो रही है।" वह हाँफ रही थीं। वह फोन पर उनकी तेज़ साँसों को सुन रही थी।     

"और आप अकेली हैं?"    

"हाँ, अपने कमरे में हूँ। तबीयत ठीक नहीं है।" उनकी कमज़ोर, बूढ़ी आवाज़ सुनायी पड़ी। फिर फोन पर सुनाई पड़ा वे पुकार रही थीं, "ऐ सुगंधा!... ऐ सुगंधा!"    

ईशा को याद आया कि वह उठकर बिना सहारे के तो चल भी नहीं सकती थीं। उन्हें कोई ज़रूरत थी क्या जिससे कारण इस तरह बेचैन होकर पुकार रही थीं सुगंधा को? या ऊब गई थीं अकेलेपन से।

ईशा अपने को बहुत बेबस महसूस कर रही थी कि वह कुछ कर नहीं पा रही है। हारकर उसने कहा, "अच्छा बड़ी माँ! घबराइए नहीं, सब ठीक हो जाएगा। आप थोड़ा भगवान को याद किया कीजिये।”    

यह कहते हुए उसे लगा कि वह उन्हें यह सब क्यों बोल रही है? क्योंकि उन्हें कभी ईश्वर में विश्वास नहीं रहा। इतनी दूर से वह करती भी क्या? देख रही थी उन्हें पुर्ज़ा-पुर्ज़ा बिखरते हुए। उसके शब्दों की डोर शायद उन्हें बिखरने से रोक ले! उसकी सलाह कहीं उनके काले अँधेरे को रोशनी की छेनी बनकर छेद दे! उसकी बातों से किसी रोते हुए बच्चे को एक खिलौना मिल जाये!     

यह सुनकर बड़ी माँ की आवाज़ में एक उम्मीद झिलमिलायी। 

वे पूछ बैठीं, "भगवान? भगवान को याद किया करूँ?"    

"हाँ। आप देखियेगा आपका मन नहीं घबरायेगा। आप अकेली नहीं हैं। आप अपने को अकेली क्यों समझती हैं?" 

उधर चुप्पी छा गयी। 

ईशा ने पूछा, "आप समझ रही हैं मेरी बात?"    

"हाँ ईशा। ऐसे ही मुझे समझा दिया करो।..... तो भगवान को कैसे याद कैसे करूँ मैं?" वे बच्चे की तरफ पूछ रही थीं।

"नाम लीजिए...। नाम ले सकती हैं न?"     

"हाँ ईशा! नाम तो ले सकती हूँ। क्या नाम लेने से घबराहट कम हो जाएगी?"    

"हाँ ज़रूर कम हो जाएगी‌।”

"अच्छा! ठीक है।” उनकी आवाज़ में स्थिरता आ गयी थी। 

थोड़ा रुककर उन्होंने ही कहा, "अब मुझे थोड़ा ठीक लग रहा है ईशा!..... अब ठीक लग रहा है। ......जैसे जान लौट आई है मेरी।"

"आप घबराइये नहीं। आपको कुछ नहीं हुआ है। आप बिल्कुल अच्छी हो जाइयेगा।"

"हाँ, तुम कहती हो तो ज़रूर अच्छी हो जाऊँगी। तुमसे बात करके बहुत तसल्ली हुई।"    

इसके बाद जो कुछ उसे फोन पर सुनाई पड़ा उससे उसने संवाद को ख़त्म कर देना ही सही समझा और जल्दी से कहा, "ठीक है बड़ी माँ! अपना ख़्याल रखिएगा।”    

प्रभाकर भैया बड़ी माँ से पूछ रहे थे, "कौन है? ईशा?"    

बड़ी माँ फोन काटना भूल गयी थीं। ईशा ने भी अपने फोन की लाइन अब तक नहीं काटी थी। वह चुपचाप सुन रही थी। प्रभाकर भैया बोलते रहे, "कौन है? ईशा?.....हम क्या ग़ैर हो गए और ईशा बड़ी अपनी कि फोन करके तुम अपना हाल-चाल सुनाने लगती हो माँ?" प्रभाकर भैया को नहीं मालूम था कि बड़ी माँ का फोन ऑन है।

"अरे सुगंधा सो रही थी। कोई नहीं था मेरे पास। मन न जाने कैसा हो रहा था। मैंने कितना पुकारा सुगंधा को....।” बड़ी माँ बोलीं

"तो थोड़ा इंतज़ार नहीं कर सकती थी?” प्रभाकर भैया बोले।

अब ज़्यादा सुनने की ज़रूरत नहीं थी। ईशा ने अपना फोन काट दिया।

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