तुम्हें बचाएँगे हम
काव्य साहित्य | कविता अंजना वर्मा1 Aug 2019
ओ नदी! कैसी हो तुम?
बहुत दुबली और निष्प्राण लग रही हो
साँसें टूट रही हैं तुम्हारी
अब तुम चल भी नहीं पा रही हो
कहाँ गयी तुम्हारी वह धार
जो सागर तक चली जाती थी दौड़ती हुई?
आज मरणासन्न हो तुम
इस तरह सभ्यता का ज़हर पीती हुई
कैसे जियोगी तुम?
और कब तक जियोगी?
तुमने क्या दिया हमें?
और क्या पाया हमसे?
तुमने हमें जीवन दिया
तृप्ति दी
ख़ुशियाँ दीं
और हम
कितने-कितने तरीक़ों से
कितने-कितने अस्त्र-शस्त्रों से
लगातार
घायल करते रहे
मारते रहे तुम्हें
तुम आज मौत के द्वार पर पहुँचकर
आँखें मूँदे पड़ी हुई हो
और तुम्हारे इस पीले चेहरे में
हमें दिख रही है मृत पृथ्वी
जो बन गयी है
कंकड़-पत्थरों का ढेर
प्राणी-रहित
अखंड सन्नाटे में लिपटी हुई
तुम नहीं रहोगी तो
मिट जायेंगे हम भी
जी उठो नदी!
आँखें खोलो!
फिर बोलो!
और गाती हुई बहो वेग से!
क्योंकि अब हमारी ज़िन्दगी
का हरा आँचल छोटा पड़ने लगा है
तुम्हारी निर्मल पारदर्शी काया में
बहा-बहाकर गन्दगी और कचरा
अस्थियाँ और देवमूर्तियाँ
हमने अपना ही अंत लिखा है अपने हाथों
लौट आओ हमारे जीवन में, नदी!
लौटो हमारी धरती पर
तुम्हारे बिना
धरती को स्वर्ग बनाने का स्वप्न
स्वप्न ही रह जायेगा
तुम्हारे ही कारण तो
पृथ्वी में रस है
और मिठास है
तुम्हारी अदृश्य हथेलियों ने
बाँध दिया है धरा को
एक लड्डू की तरह
तुम रस बनकर समायी हुई हो
इसके कण -कण में
तुम्हारे लुप्त होते ही
पृथ्वी सूखकर बिखर जाएगी
और
इसके बुरादे
खो जायेंगे अंतरिक्ष में
हम सभी को चाहिए नदी
पूछो एक चींटी से
वह माँगती है एक बूँद का शतांश पानी
पीने के लिए
पूछो एक हाथी से
उसे भी चाहिए
पीने और नहाने के लिए ढेर-सारा पानी
पूछो दूब से
पूछो पौधों और पेड़ों से
पूछो सूखे बादलों से
पूछो गड्ढों और तालाबों से
सबको चाहिए पानी
तुम माँ हो सबकी
तुमने ही सिरजी है यह सृष्टि
तुम ही पोसती हो
लौट आओ माँ!
हम सब बुलाते हैं अपनी अंतरात्मा से
हम सब
हमें आ रहे हैं दुःस्वप्न इन दिनों
कि एक बूँद पानी
बन गया है कोहिनूर
सुरक्षित है सोने के दुर्ग में
कड़े पहरों के बीच
जिसके लिए लड़ रहा है पूरा विश्व
मिटती जा रही है सारी दुनिया
मशीनी मानव हैं
अन्न-जल के बिना चलते-फिरते और लड़ते हुए
शरीर में लाल पानी नहीं
आँखों से नमकीन पानी ग़ायब
कौन-सा महानगर है यह
जहाँ पेड़-पौधे ग़ायब हैं ?
प्राणी-पंछी ग़ायब हैं
खून-पानी वाले मानव
बन गए पुरातन
असत्य हो यह दुःस्वप्न
ओ नदी! लहराओ इस धरती पर
हम मरने नहीं देंगे तुम्हें
बचाएँगे तुमको
चाहे जैसे भी हो
क्योंकि सबको ज़रूरत है तुम्हारी
रचती रहो इस दुनिया को
रचती रहो हमें
तुम गाओ
तुम गाओगी तो ज़िन्दगी गाएगी
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