पर्यावरण सरोकार के तीस दोहे
काव्य साहित्य | दोहे अंजना वर्मा1 Nov 2024 (अंक: 264, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
1.
पर्यावरण से आज हो, उठे सभी भयभीत
धीमा पड़ता जा रहा, जीवन का संगीत
2.
कहांँ सुबह की वो हवा, बहती थी जो मंद
भर देती थी ताज़गी, भीनी लिये सुगंध
3.
आकाश तक कोलाहल, धूल-धुआँ भरमार
प्राण वायु कम हो रही, मनुज हुआ लाचार
4.
पेड़ हमारी ज़िंदगी, हमको देते साँस
एक वृक्ष संजीवनी, रोग न आए पास
5.
बढ़ रहा है शहरों का, पांचाली-सा चीर
प्राणी बेघर हो रहे, वन कटने से पीर
6.
मानव ने तो कर लिया, अपना बहुत विकास
मनचाहा सुख पा लिया, चैन नहीं है पास
7.
दिन-दिन कटते पेड़ हैं, बढ़ता जाता ताप
फूटेगा ही एक दिन, धरती का संताप
8.
हरियाली से टूटता, मानव का सम्बन्ध
देखें तो कैसे भला, छह ऋतुओं के रंग?
9.
पेड़ कटे छाया घटी, भू को चढ़ा बुख़ार
ए सी कूलर लग रहे, तपने लगे पहाड़
10.
भूल गए सब लोग क्यों, अब वसंत का नाम
ईंट-पत्थरों में दिखें, इसके कहाँ निशान?
11.
भँवरे तो दिखते नहीं, मधुऋतु की पहचान
कीटनाशकों से गयी, मासूमों की जान
12.
महानगर का हो रहा, दिन-दिन ही विस्तार
पाटे पोखर-झील सब, काटे तरु लाचार
13.
कितने सबको चाहिए, घर तो होता एक
आज आदमी एक पर, उसके फ़्लैट अनेक
14.
नदियाँ हँसती थीं कभी, भरी हुई उल्लास
अब नदियों की टूटती, बहने में भी साँस
15.
नदियों ने जीवन दिया, मानव ने दी ख़ाक
गंगा तक दूषित हुई, कूड़े की सौग़ात
16.
जल का संकट बढ़ रहा, जल भागा पाताल
धनियों को चिंता नहीं, जनता है बेहाल
17.
नहीं जलाशय अब बचे, ज़हर हुए जलस्रोत
बोतल में पानी बिके, अब क्या होगा सोच
18.
जल तो दूषित हो गया, अब रो रहा समीर
पंचतत्व को छेड़कर, नर पाएगा पीर
19.
गिरि-पर्वत को काट-काट, सड़कें बनतीं रोज़
पर्वत क्या रच पाएगा? ऐ मानुष! तू सोच
20.
अतिशय सुख की खोज में, चला नाश की ओर
अति के पीछे भाग मत, इसका पल्ला छोड़
21.
जब तक देता था मनुज, धरती को सम्मान
तब तक माता ने दिया, अतुल सुखों का दान
22.
सबकुछ मिला प्रकृति से, पर ठानी है वैर
क्या अब उससे टूटकर, मना रहा है ख़ैर?
23.
कभी बाढ़ सूखा कभी, कहीं उड़ रही रेत
कभी करोना आ गया, चेत सके तो चेत
24.
रक्तबीज-सा ले रहा, रूप-रंग आकार
प्लास्टिक की चीज़ों से भरा हुआ संसार
25.
रोज़ दवाएँ बन रहीं, नए-नए उपचार
रोगों के भी हो रहे, नये-नये अवतार
26.
धरा बिना जल-खाद के, तब भरती थी पेट
आज रसायन से मरे, हरे-भरे वे खेत
27.
क्यों करते अपने लिए, सब जीवों का अंत
दिन-दिन मरते जा रहे, हैं प्राणी के वंश
28.
काट रहे हो वनों को, भरते जल के स्रोत
भावी पीढ़ी के लिए, संकट बढ़ता रोज़
29.
मानव के सुख का कहीं, होता ओर न छोर
इच्छाओं ने कर दिया, तहस-नहस सब ओर
30.
असली धन तो है रसा, हरियाली सब ओर
पाखियों का कूजन हो, सुरभित हो हर भोर
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