अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

उनकी वापसी

लौट रहे हैं मज़दूर
इससे पहले वे नहीं हुए थे इतने मजबूर
अपनी मेहनत पर उन्हें भरोसा था 
दुनिया रचने वाले विश्वकर्माओं को
आज बेकारी की लपटों में झोंक दिया गया 
छिन गया उनका निवाला 
अपने टूटे बसेरों के टुकड़े सिर पर लादे
चले जा रहे हैं ख़ाली हाथ 
हज़ारों मील लंबा है सफ़र
कोई वाहन नहीं मिला
यदि है भी तो इन्हें मयस्सर नहीं
बस अपनी थकी-हारी टाँगों पर ही भऱोसा कर  
वे निकल पड़े हैं अपने गाँवों के लिए
इनका कारवाँ बढ़ा जा रहा है
भूखे - प्यासे रहकर भी चल रहे हैं
दोपहर की धूप में भी चलते हुए जल रहे हैं
कोई अपने बाल- बुतरू समेटे
घर वाली के साथ 
सबको देखता- सँभालता चल रहा है
तो कोई अकेला चलते हुए सोच रहा है
कि अगर दम टूट गया रास्ते में
तो कौन देखेगा?
और गाँव में कई जोड़ी आँखें
रास्ता देखती रह जायेंगी


अब कोरोना से क्या डरें ?
कितने-कितने डरों के बीच सयाने हुए हैं
चलना ही ज़िन्दगी है उनके लिए
आगे-आगे रोटी पीछे-पीछे वे
चलते रहे हैं इसी तरह 
खेलने-खाने  से दिनों से
वैसे दूसरों के लिए बचपन होता होगा 
खेलने- खाने का पर्याय
क्या होता है खेल ? 
और क्या होता है  खाना ? 
उन्होंने कभी नहीं जाना
सच तो यही है
कि सारी उम्र वे नापते रहे हैं ज़मीन
आज ज़िन्दगी के लिए 
ज़िन्दगी लगी है दाँव पर

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

दोहे

गीत-नवगीत

कविता

किशोर साहित्य कविता

रचना समीक्षा

ग़ज़ल

कहानी

चिन्तन

लघुकथा

साहित्यिक आलेख

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं