बंद दरवाज़े
काव्य साहित्य | कविता अंजना वर्मा1 Aug 2020 (अंक: 161, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
अपने टूटे सपनों की गठरी
सिर पर लादे
लौट आये हैं मज़दूर
किस तरह लौटे
भूख-प्यास से व्याकुल और हाँफते
धूप में चलते- जलते
बरसात में भींगते
हज़ारों किलोमीटर की दूरी को
अपनी कमज़ोर टाँगों से नापते
अपने गिरते हौसले को सँभालते
बच्चों को गोद में उठाये चलते
तो कभी
उन्हें चलने का हौसला देते
अपनी अंतहीन यात्रा
आख़िर पूरी कर ही ली उन्होंने
हार कर लौटे
तो एक खुशी मिली उन्हें
गाँव की मिट्टी पर क़दम रखने की
पर वह ख़ुशी भी ग़ायब हो गयी
जब देखा कि उनकी ज़िन्दगी पर
जड़ दिया गया है ताला
अब कहाँ से आये निवाला?
मौत का सन्नाटा पसरा हुआ है
हाथ-पैर बँधे हैं
चूल्हे ठंडे पड़े हैं
पता नहीं कब जलेंगे
और कैसे?
सुना है आसमान से टपकती हैं रोटियाँ
पर कहाँ ?
उन्हें तो दिखायी नहीं देतीं
लूट रहा होगा कोई
उन्हें मालूम होता
तो वे भी ले आते संजीवनी
दिन-दिन अस्थि के ढाँचों में
परिणत होते जाते
अपने बाल-गोपालों के लिए
जिन हाथ-पैरों पर
उनकी दुनिया टिकी थी
वे ही बाँध दिये गये हैं
बंद हो गयी हैं किलकारियाँ
सारा कुनबा
भूख की बेहोशी में सोया हुआ है
कब यह नींद
अनंत निद्रा में बदल जाये?
पता नहीं
लगता है पृथ्वी ने
घूमना बंद कर दिया है
क्या मालूम?
कल सूरज भी उगे ना उगे?
उन्हें डर नहीं है किसी बीमारी का
यदि है तो भुखमरी का
तो क्या यह कोरोना
भूख से भी अधिक भयंकर है?
दरवाज़े बंद कर लेने से
बीमारी नहीं आयेगी
पर बंद दरवाज़ों के भीतर
उन्हें भूख खा जायेगी
बहुत बेबस हैं वे
हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं
पर देखते हैं कि
गहरी काली घटाओं को भेदकर
रोशनी के कुछ तार निकल आये हैं
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