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हम स्वयं विषपायी हैं

कोरोना के डर से 
जब सब लोग बंद हैं अपने घरों में
अपने को सुरक्षित बना लिया है सबने
खाद्य सामग्री और दैनिक ज़रूरतों की चीज़ें
जुटा ली हैं कई महीनों तक के लिए
तो ये कौन हैं जो संकटकाल में
पलायन कर रहे हैं ?
इन्हें महामारी का डर नहीं?
मीलों लंबी क़तार बनाकर
अनजाने-अनचाहे, बेबस
एक-दूसरे की साँसें खींचते हुए
अपने घरों तक पहुंचने की जद्दोजेहद में लगे हैं
मरकर या जीकर जैसे भी


इन सवालों का जवाब कोई देगा?
कि क्यों सबका पेट भरने वाला
भूखा रह जाता है ?
और सबका घर जोड़ने वाला
अपना घर न जोड़ पाता है?
सारी विपत्ति उन्हीं के झोले में


अब कोरोना वाइरस के सामने 
वे निहत्थे खड़े हैं
न पैसा, न कौड़ी
न दाना , न पानी
असुरक्षा ही इनकी
चिरंतन कहानी


सब साथ छोड़ देते हैं
पर एक कोई है 
जो कभी साथ नहीं छोड़ती 
वह है उनकी  मजबूरी 
एक मास्क तक नहीं नाक पर
बचाव का कोई उपाय सुलभ न हो सका
तो अब अपनी मजबूरी का ही नक़ाब पहनकर
वे खड़े हैं कोरोना के सामने


और कह रहे हैं --
"क्या बिगाड़ लेगी तू मेरा?
तू आ गयी महामारी बनकर
मुँह पर ताला लगा दिया मिल मालिकों ने
घर में ताला लगा दिया मकान मालिकों ने
जान लेने के लिए खड़ी है 
बेरोज़गारी और भुखमरी
इन सभी से जूझ रहा हूँ एक साथ


तो एक तुझसे भी सही
तुझे दिखा रहा हूँ अँगूठा
मेरे साथ चलेगी क्या गाँव तक?
तुझसे ठन गयी है  मेरी लड़ाई
पर मैं ही जीतूँगा.....
जीतूँगा..... और जीतूँगा
तुझसे हार नहीं मानूँगा मैं
हराऊँगा तुझे
तेरे पास वह विष नहीं
जिससे तू  मुझे ख़तम कर सके
हम स्वयं "विषपायी हैं"

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