धरती जल रही है
काव्य साहित्य | कविता अंजना वर्मा1 Jan 2021 (अंक: 172, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
मेरी बंद पलकों के भीतर
रोज़ छटपटाती है वह
असह्य दुःख से निकली उसकी चिंघाड़
गोदती है मेरी आत्मा को
वह बही जा रही है आर्तनाद करती हुई
पीड़ा की लाल नदी में
और मैं किनारे पर बेबस खड़ी
सजल नैनों से
उसे मृत्यु के मुँह में समाते हुए
देखती रह जाती हूँ
वह स्वयं नहीं मरी
उस मासूम को मारा गया
अनन्नास का प्रलोभन देकर
बम से उड़ा दिया गया
पृथ्वी पर यातना और हिंसा के दौर
बढ़ते जा रहे हैं क्यों?
उसके गर्भ में पलता हुआ शिशु
विस्फोट में धधक गया
नृशंसता की लाल-नारंगी लपटों में
जल गया
इंसानों के बीच छुपे हुए हैवानों ने
माँ के गर्भ को ही
अजन्मे शिशु की क़ब्र बना दी
जिसे हम कहते हैं मनुष्य
और जिसे बना देते हैं इस धरती का
श्रेष्ठतम प्राणी
उसके कारनामें लहूलुहान कर रहे हैं हमें
सारी कायनात त्रस्त है उससे
जानवर भी काँप रहे हैं
मनुष्य और पशु
दोनों के शब्दार्थों का
आपस में विपर्यय हो गया है
मनुष्य के आलोक-जगत में
पर्दे के पीछे घोर अँधेरा है
उसमें खुला हुआ है
कमज़ोरों और बेबसों के लिए क़साईबाड़ा
शक्ति और सत्ता हाथ से हाथ मिलाये
नाच रही हैं मदहोश होकर
इस उत्सव के बाद
उन सबकी हत्या कर दी जायेगी
जो कमज़ोर हैं
या जो उनके बताये रास्ते पर नहीं चलते
या जो उन्हें पसन्द नहीं
या जो ग़ैरज़रूरी हैं
या जिनके सिर उठे हुए हैं
या जो सवाल करते हैं
या जिनसे जीने का हक़ छीनकर
उन्हें लाभ होगा
नर या नरेतर, कोई भी हो
कभी ऑनर किलिंग
कभी दहेज़-हत्या
कभी यौन हिंसा
कभी भ्रूणहत्या
कभी रंग-भेद हत्या
कभी पशु-पंछी के प्रति क्रूरता
तितलियों तक के पंख काट लिये जायेंगे
छोड़ दी जायेंगी वे
तड़पकर मरने के लिए
इनमें से कोई बख़्शा नहीं जायेगा
रोज़ सताने के नये-नये क्रूर तरी्क़े
ईजाद हो रहे हैं
दो टाँग वालों से
आतंकित है पूरी दुनिया
उनका खौलता हुआ लावा
न जाने किस पर गिरे?
लगता है कि अब एक बार फिर
धरती अपनी मुक्ति के लिए गुहार लगायेगी
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