समस्या से पहले समाधान दिया था कृष्ण ने
आलेख | शोध निबन्ध अंजना वर्मा1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
कृष्ण भारतीय देवताओं में सबसे अधिक लोकप्रिय देवता रहे हैं, जो आज भी घर-घर में पूजित होते हैं और भारत तथा विदेशों में भी एक बड़े जन समुदाय के इष्टदेव बने हुए हैं, जिनकी जीवनलीला से जनजीवन आज भी प्रेरणा पा रहा है, जिनके कर्मयोग के संदेश ने मानव को आत्मिक शक्ति और मानसिक सुख-शांति देने के साथ-साथ उसके लिए सच्चा कर्म-पथ भी निर्दिष्ट किया। कृष्ण भी राम की तरह विष्णु के अवतार माने गए हैं, परन्तु जनमानस को राम से अधिक कृष्ण की लीलाओं ने प्रभावित किया। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और कृष्ण हैं लीला पुरुषोत्तम। कृष्ण ने अपने जीवन में जो अद्भुत लीलाएँ कीं, उनकी तह में लोकहित ही था। ब्रज मंडल की रक्षा के लिए उन्होंने बाल्यकाल में ही कितने असुरों का वध किया। पूतना का वध, शकटभंजन, धेनुकासुर-वध, कालिय दमन आदि घटनाओं को देखकर गोपजनों को उनकी ईश्वरीय शक्ति का आभास हो गया था। कृष्ण ने व्रजवासियों को बचाने के लिए दावानल का भी पान किया। कहने का अर्थ यह कि यदि राम त्रिविध तापों को हरने वाले थे तो कृष्ण का भी संपूर्ण जीवन मानव एवं प्रकृति के हित में ही व्यतीत हुआ।
परन्तु राम की तुलना में कृष्ण का सरस, प्रेमी व्यक्तित्व, उनकी जीवन लीला का मधुर रंग उनके ज्योतिर्मय परमेश्वर रूप को बादलों की तरह अच्छादित कर देता है। उनका व्यक्तित्व अत्यंत सरल तत्वों से निर्मित दिखता तो है, परन्तु अगाध है। कृष्ण एक ऐसे देवता हैं, जिनको पूर्ण रूप से समझ पाना कठिन है। जनसाधारण के साथ आनंदमय जीवन बिताते हुए योगेश्वर कहलाने वाले कृष्ण का व्यक्तित्व बड़ा ही रहस्यमय है। राम को समझना सरल है, किन्तु उनकी तरह सत्य और आदर्शों के पथ पर चल पाना और उनके तप-त्याग का अनुसरण कर पाना सबके लिए सम्भव नहीं। कृष्ण का अनुसरण करना आसान है, पर उनको समझ पाना कठिन, जबकि लोग राम की तुलना में कृष्ण को बड़ी आसानी से लेते हैं, जिसका मूल कारण यह है कि कृष्ण की लीलाओं की मधुरता सबको आकृष्ट करती है। यही कारण है कि राम की तुलना में कृष्ण के भक्तों की संख्या हर युग में अधिक रही है। परन्तु सच तो यही है कि कृष्ण को भजने वाले भी कृष्ण के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ होते हैं। कृष्ण वह नहीं हैं जो दिखाई पड़ते हैं और जो वे हैं, वह उनके बाह्य व्यक्तित्व में दिखाई नहीं पड़ता। उनके अनंत-अगोचर सर्वव्यापी और सच्चे मार्गदर्शक जगद्गुरु रूप को उनके सम्मोहक प्रेमी और रसिया व्यक्तित्व में बिना जिज्ञासा या आत्मिक ज्ञान के देख पाना कठिन है। उनके अत्यंत प्रिय अर्जुन भी उनके विराट रूप का साक्षात्कार तभी कर पाए जब कृष्ण ने उन्हें दिव्य-दृष्टि प्रदान की।
अनेक विरोधाभासों से भरा हुआ कृष्ण का अद्भुत चरित्र जितना चकित करता है उतना ही सम्मोहित भी करता है। एक ओर वे योगेश्वर और जगद्गुरु हैं, तो दूसरी ओर गोपियों के प्रेमी और रासरचैया भी हैं। महाभारत के युद्ध में अर्जुन जब अपने बंधु-बांधवों के विरुद्ध आयुध उठाने के लिए तैयार नहीं होते तो कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं:
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थनैतत्तवय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप॥1
फिर उन्हें समझाने के क्रम में अपना भक्त बनने और योगी होने के लिए भी कहते हैं:
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥2
कृष्ण के व्यक्तित्व से जुड़ी परस्परविरोधी बातों में उनका वास्तविक स्वरूप ढूँढ़ पाना सामान्य जन के लिए सम्भव नहीं है। कृष्ण को जानने के लिए उनके जीवन, उनके द्वारा की गई लीलाएँ और उनके दर्शन और संदेशों की तह में पैठकर श्रद्धावान होकर विश्लेषण करना होगा। इससे मनुष्य को वह ज्ञान प्राप्त होगा, जिसके द्वारा वह दुर्लभ मानव जीवन को सार्थक रूप में जी लेगा। कृष्ण के अति गहन एवं व्यापक जीवन-चरित की अनेक शाखाएँ हैं, जिनके द्वारा मनुष्य को हर युग में अपनी सांसारिक तथा आध्यात्मिक कठिनाइयों से छूटने का मार्ग मिलता रहा है। जगद्गुरु कृष्ण के चरित्र और उनके संदेश में अद्यतन मानव समाज के भी जटिल तथा अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर समाए हुए हैं। ज़रूरत है उन्हें श्रद्धावान होकर समझने की। श्रद्धा एक ऐसा भाव है जिसकी ज़रूरत ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी होती है – “श्रद्धावान् लभते ज्ञानं,” तो आराध्य से आधुनिक जीवन की कठिनाइयों के उत्तर मिल जाने के विश्वास का उदय भी बिना श्रद्धा के सम्भव नहीं है। विडंबना यह है कि वर्तमान युग श्रद्धा का नहीं, बुद्धि का है। इसीलिए भक्ति वर्तमान समय में अप्रासंगिक हो गई है। मनुष्य हर विषय को बुद्धि की कसौटी पर जाँचता है और बुद्धि के ही द्वारा हल करना चाहता है। अतः वह ईश्वर को भक्ति और अंधविश्वास के खाते में डालकर यथार्थ जीवन से अलग कर देता है।
आज नष्ट होते हुए पर्यावरण को देखकर मनुष्य भयभीत और बेचैन है। उसे अपना जीवन और संसार ख़तरे में दिखाई दे रहा है। अतः एक ओर से वह इसे सुधारने की चेष्टा तो कर रहा है, पर दूसरी ओर उसकी प्रकृतिघाती कृत्रिम जीवन-शैली ही पर्यावरण-प्रदूषण को दिन-प्रति-दिन बढ़ाती चली जा रही है। यदि यह कहा जाए कि इसका समाधान कृष्ण के जीवनचरित से मिल सकता है, तो यह अविश्वसनीय ही नहीं, हास्यास्पद भी लगेगा आज के संदर्भ में। परन्तु विचार करने पर यह समझ में आता है कि कृष्ण ही एक ऐसे देवता है जिनका प्रकृति से असीम अनुराग और जुड़ाव रहा है। गोप होने के कारण बाल्यकाल में वे गौ चराया करते थे, जो केवल काम निपटा देने के लिए नहीं किया जाता था, वरन् इस कार्य में उनकी अनुरक्ति भी रहती थी। उन्हें गायें प्रिय थीं, जिन्हें ले जाकर हरी-भरी भूमि पर चराना उनका काम था, जो उन्हें आनंद से भर देता था। प्रतीकात्मक रूप में देखा जाए तो कृष्ण परमात्मा हैं और गायें आत्माएँ। आत्माओं को भौतिक से लेकर आत्मिक तृप्ति देने वाला एकमात्र परमात्मा ही है। परमात्मा कृष्ण का स्वयं प्रकृति के पक्ष में खड़ा होना यह संदेश देता है कि प्रकृति के संरक्षण में ही मानव एवं धरती पर स्थित जीवन की सुरक्षा निहित है। कलयुग के इस प्रश्न का उत्तर जगद्गुरु ने द्वापर में ही दे दिया था, जिसे हम आज तक समझ नहीं पाए हैं।
उनके जीवन में प्रकृति का क्या स्थान था या वे किस प्रकार प्रकृति से जुड़े रहे, इस विषय पर बहुत कम सोचा गया है। आम जन को यदि कृष्ण-चरित के किसी पक्ष ने सबसे अधिक प्रभावित किया, तो वह था कृष्ण का प्रेम-पक्ष और गोपिकाओं के साथ रास रचाना। उनका निसर्ग-प्रेम हमारी दृष्टि से ओझल ही रहा, जिसे हम जानकर भी जान नहीं पाए और चित्रों में देखकर भी नहीं देख पाए। वे भरी-पूरी प्रकृति से घिरे हुए हैं। हमने कृष्ण का सुमिरन तो किया, लेकिन उनकी प्रिय प्रकृति को भूल गए। उसे महत्त्व देना ज़रूरी नहीं समझा। मुरली बजाने का उनका प्रिय स्थान था—यमुना-तट पर कदंब का वृक्ष या भाण्डीर वट। विद्यापति के शब्दों में कहें तो—नंदक नंद कदंबक तरु तर धीरे-धीरे मुरली बजाव। जयदेव के शब्दों में कहें तो—धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली (गीत गोविंद)3
ब्रज की मनोहारी भूमि पर विहार करना कृष्ण को राज्यारोहण से भी अधिक प्रिय लगा था। कंस का वध करने के बाद जब उग्रसेन विलाप करते हुए कृष्ण को मथुरा का राज्य सौंपने लगते हैं तो कृष्ण अस्वीकार करते हुए उस राज्य पर उग्रसेन का ही राज्याभिषेक कर देते हैं और अपने विषय में कहते हैं कि वे वनेचर बनकर गोपालकों के साथ गोचारण करते हुए स्वच्छंद हाथी की तरह प्रसन्नमन विहार करना अधिक पसंद करेंगे। वनेचर शब्द भले ही अनादरसूचक लगे, परन्तु कृष्ण सहर्ष अपने को वनेचर कहकर गौरवान्वित महसूस करते हैं:
अहं स एव गोमध्ये गोपै सह वनेचरः।
प्रीतिमान विचरिष्यामि कामचारी यथा गजः॥4
स्वर्ण और राजसत्ता के रंग में डूबा कंस प्रकृति-प्रेम को क्या जाने? वह कृष्ण और बलराम दोनों भाइयों को वनेचर कहकर खिल्ली उड़ाते हुए छल से उनकी हत्या करने का आदेश देता है:
एतौ रंगगतौ युद्ध्यमाने वनेचरौ।
निपातानन्तरं शीघ्रं हन्तव्यं नात्र संशय:॥5
तुच्छ और ग्राम्य-सा दिखने वाला गोचारण-कार्य तत्कालीन गोपों के संदर्भ में कितना ज़रूरी था और मनुष्य और समाज के लिए कितनी कल्याण-कामनाओं से जुड़ा हुआ था, यह विषय आज के छीजते हुए पर्यावरण प्रसंग में अधिक विचारणीय हो उठा है। गोसेवा के लिए न आज किसी के पास श्रद्धा है और न ही पर्याप्त समय या स्थान है। परन्तु आज के संदर्भ में भी वह ज़रूरी इसलिए है कि दूध की जितनी माँग नगरों और महानगरों में है, वह पूरी नहीं होती, जिसके कारण नक़ली दूध बाज़ार में आ रहा है। गाँव से शहर पलायन का दुष्प्रभाव हमारी जिन परंपरागत आजीविकाओं पर पड़ा है, उनमें एक गोपालन भी है। गोपालन और गोसेवा को निम्न तथा तिरस्कृत मानने का दुष्परिणाम यह हुआ है कि दूध की नक़ली आपूर्ति हो रही है और मानव समाज तरह-तरह की व्याधियों से ग्रस्त हो रहा है।
कृष्ण वैदिक आरण्यक सभ्यता का पोषण करने वाले सर्वाधिक सशक्त देव हैं। यहाँ यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि कृष्ण सामान्य नर नहीं, बल्कि परमेश्वर हैं, आदि पुरुष हैं, तो भी उनको राज्य से अधिक वन-जीवन प्रिय था, जिसको बचाने की चिंता बचपन से ही थी उन्हें। जब उन्होंने यह महसूस किया कि गोकुल की भूमि निरंतर निवास करने के कारण श्रीहीन तथा दुर्बल हो रही है तो वह भाई संकर्षण के साथ गोकुल के निवासियों को लेकर वृंदावन चले जाते हैं। वहाँ के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, पर्वत-नदी और तिनके-तिनके तक से उनका प्रेम दिखाई देता है। वे प्रकृति के उपादानों से ही अपना अद्भुत शृंगार करते हैं—सिर पर मोर पंखा, गले में वनमाल या वैजयंती माल तथा हाथों में उनके अधरों के स्पर्श के लिए बेचैन बाँस की बाँसुरी और गाय। गाय—जो उनके और उनकी प्राणेश्वरी राधा की युगल जोड़ी के साथ भी उन दोनों का सामीप्य-सुख पाने की चेष्टा में खड़ी रहती थी। कृष्ण का एक अनोखा रिश्ता ब्रज की वनस्पतियों और जीव-जंतुओं से बना हुआ था! कवि रसखान ऐसे ही नहीं लुटे उनके रूप-माधुर्य और ब्रज की प्राकृतिक सुषमा पर! उन्होंने ऐसे ही नहीं कहा कि:
“मानुष हौं तो वहै रसखान बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन
जो पशु हौं तो कहा बस मेरों चरौं नित नंद की धेनु मँझारन”
कृष्ण की छवि ब्रज, गोकुल, कालिंदी-कूल और धेनुओं के कारण अतिशय सरस हो उठती है। वे ब्रज के कदम्ब-वृक्ष के नीचे त्रिभंगी मुद्रा में खड़े होकर बाँसुरी बजाते हैं, कभी गौओं के बीच विचरते हैं तो कभी बलदाऊ, श्रीदामा और ग्वालबालों के साथ मनोरम हरी-भरी भूमि पर धमाचौकड़ी मचाते हैं। कृष्ण का जीवन और उनकी दिनचर्या निसर्ग के साथ पूरी तरह घुली-मिली हुई है। गाय चराना, दूध-दही-मक्खन खाना, यमुना किनारे भाई संकर्षण के साथ घूमना—इस प्रकार प्रकृति और लोक जीवन में रमने वाला कोई अन्य देवता दिखाई नहीं देता। अन्य देवताओं की तरह वे आभूषण से लदे हुए नहीं है, न उनके हाथ में आयुध हैं। उनकी ख़ुशी मोरपंख, वनमाल और बाँस की बाँसुरी में ही निहित है। जहाँ कृष्ण है, वहाँ प्रकृति है और जीवन का प्रवाह है।
कृष्ण के साथ मुरली का अनन्य सम्बन्ध संगीत के साथ मानव की सुख-शान्ति के जुड़ाव को दर्शाता है। संगीत न केवल मनुष्य को, बल्कि सभी जीव-जंतु को अपनी ओर आकर्षित करता है। कृष्ण जब वंशी बजाते थे तो उसकी सुरीली तान से न केवल ब्रज के नर-नारी, बल्कि गायें और पंछी-प्राणी तक सम्मोहित होकर खिंचे चले आते थे, तन्मय होकर सुनते थे। यह सिद्ध हो चुका है कि संगीत में चिंता दूर करने और शान्ति प्रदान करने की अपार शक्ति है। इतना ही नहीं, उसे अनेक प्रकार के रोग भी दूर होते हैं। वर्तमान समय में भौतिक संपदा के पीछे भागता हुआ मनुष्य, जो अपनी सुख-शान्ति खो चुका है, उसे अपनी आत्मिक सुख-शान्ति लौटाने के लिए कृष्ण के जीवन का अनुसरण करना होगा।
कृष्ण ने समाज को अभय करने के लिए उपद्रवी तत्वों को नष्ट करने का काम बचपन से ही प्रारंभ कर दिया था। बाल्यकाल में ही उनके द्वारा बड़े-बड़े असुरों का वध भी हुआ है। कृष्ण के जीवन-चरित से लोक कल्याण की जो धारा फूटती है, उसका एक किनारा मानव है तो दूसरा किनारा प्रकृति है। कृष्ण ने अपनी अद्भुत लीलाओं और गीता के माध्यम से समाज को जो संदेश दिए, वे सचमुच मानव को सच्चे आत्मिक आनंद के साथ-साथ भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख-समृद्धि से परिपूर्ण करने वाले हैं। इसीलिए वेदव्यास जी ने महाभारत में कहा है:
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्रध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥6
कृष्ण ही एक ऐसे देवता हैं जिनका प्रगाढ़ सम्बन्ध पर्यावरण से है। वे अपनी भूमि और वहाँ के हरे-भरे पर्यावरण के बिना अधूरे हैं। सच पूछा जाए तो प्रकृति भी ऐसे संरक्षक के बिना सदा संकटों से घिरी रहती है; क्योंकि प्रतिदिन क्षतिग्रस्त होती हुई धरती को बचाने वाला कोई नहीं होता। इधर आकर जब से मनुष्य धर्म को अंधविश्वास ठहराकर उसकी अवहेलना करने लगा है, तब से प्रकृति के प्रति उसके क्रियाकलाप आत्मघाती ही सिद्ध हो रहे हैं। आज से आधी शताब्दी पूर्व समाज का निसर्ग के उपादानों में कितना विश्वास था और उनके प्रति कैसी श्रद्धा थी! इसी श्रद्धा-भाव के कारण उन दिनों धरती, पेड़-पौधे, नदी-पोखर-तालाब आदि को दूषित करना मना था। हमारे बड़े-बुज़ुर्ग हर वस्तु में ईश्वर का वास मानते थे—यहाँ तक कि कण-कण में सर्वव्यापी परमात्मा की उपस्थिति मानी जाती थी। इस भावना से कोई और लाभ हो न हो, एक व्यवहारिक लाभ तो यह ज़रूर होता था कि हर प्राकृतिक अवयव की सुरक्षा हो जाती थी। धरती, सूर्य, नदी, तालाब, पर्वत आदि तो साक्षात् देवता स्वरूप और प्रणम्य थे। पेड़ों में विशेष रूप से पीपल, बरगद, शमी, आँवला, बिल्व आदि में ईश्वरीय वास मानकर पूजने का प्रचलन था। जल या जलस्रोतों को दूषित करना निषिद्ध था। आज यह बात बहुत सुखद लगती है कि चाहे जिस भी कारण से हो, विगत समय में समाज इन नियमों को मानता था जिससे उसका ही कल्याण होता था। वर्तमान समय में खंडित दृष्टि रखने वाले बुद्धिजीवियों को भले ही ये बातें अंधविश्वास प्रतीत होती हों, लेकिन इस भावना के मूल में पर्यावरण संरक्षण की भावना ही कार्य कर रही थी। इस लक्ष्मण-रेखा को लाँघकर आगे निकल जाने का दुष्परिणाम हमारे सामने तो आ ही रहा है।
नदियाँ दूषित हो गई हैं, जलस्रोत मृतप्राय हो गए हैं। वाहनों की अधिकता देखते हुए सड़कें बनाने की ज़रूरत ऐसी बढ़ गई है कि पीपल और बरगद जैसे आक्सीजनदायक हितकारी पेड़ भी काटकर हटाए जा रहे हैं। आज ऐसे छायादार और औषध वृक्षों की बहुत कमी हो गई है। अब लोग गाँव या नगर में ऐसी सघन छाया वाले विशाल वृक्षों को उगने भी नहीं देना चाहते हैं। वटवृक्ष जो कभी इतने पवित्र समझ जाते थे, आज मुश्किल से दिखाई देते हैं, जबकि पहले पीपल या बरगद को उखाड़ना भी मना था। अब इन बातों में किसी का विश्वास नहीं रहा जिसके परिणामस्वरूप प्राणवायुदायक वटवृक्षों की संख्या अत्यंत कम हो गई है। धरती पर से विशालकाय जीव-जंतु लुप्त हो गए, तो क्या इन विशालकाय जीवनदाता पेड़ों की घनी छाया भी लुप्त हो जाएगी? हमारी अगली पीढ़ी को इनकी छाँह में बैठने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा? सच्चाई तो यही है कि हमने इनके लिए विलुप्ति के द्वार खोल दिये हैं। आने वाले समय की भयावहता को देखते हुए इन्हें बचाना बहुत ज़रूरी हो गया है।
कृष्ण को भांडीर वट एवं कदंब वृक्ष के साथ-साथ ब्रज के सभी तरु-लताएँ और यमुना अत्यंत प्रिय थी। उन्होंने जब यमुना में कालिय नाग का निवास देखा तो इस जलस्रोत को शुद्ध करना ज़रूरी समझा। कृष्ण यह समझते थे कि कालिया नाग और दुरात्माओं का दमन करने के लिए ही उनका अवतार हुआ है। कालिया नाग के दमन से नदी समूचे ब्रज के उपभोग में आने योग्य हो जाएगी और दुरात्माओं के दमन से ब्रज सुखी हो जाएगा। इस महाअभियान की पूर्ति के लिए उन्होंने कालिय नाग को पददलित करके उसे पाताल में जाने का आदेश दिया। उसके बाद से यमुना का पानी शुद्ध हो गया और सारे ब्रजवासी उसे अपने दैनिक उपयोग में लाने लगे।7
जिस तरह कृष्ण की श्रद्धा नदी में थी, उसी तरह पर्वत में भी थी। ब्रज में इंद्रयाग उत्सव मनाया जाता था जिसमें ग्वाल समाज इंद्र की पूजा करता था। कृष्ण ने इंद्र की पूजा के बदले गोवर्धन पर्वत की पूजा को श्रेयस्कर समझते हुए इंद्रयाग को स्थगित करवाया और गिरियज्ञ का सूत्रपात कराया। इससे क्रोधित होकर इंद्र ने जब महावृष्टि आरंभ की तो गोवर्धन पर्वत ने ही संपूर्ण ब्रजवासियों को अपने भीतर शरण देकर उन्हें बचाया। गोवर्धन पर्वत के हित में उसके प्रति जनचेतना जगाने के लिए कृष्ण ने यह पूजा प्रारंभ करवाई। वे यह समझते थे कि पर्वत मानव और मानव-जीवन के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, जिनके कारण ही धरती को समृद्धि प्राप्त होती है तथा धरती की हरियाली से जीव-जंतुओं के वंश का विस्तार होता है। मनुष्य प्रकृति का बालक है और पूर्ण रूप से प्रकृति पर ही आश्रित है। प्रकृति से अन्न-जल और मूलभूत आवश्यकताओं की सारी वस्तुएँ प्राप्त करने के बाद ही अतिरिक्त सुख-सुविधाएँ पाने की चाह में वह वैज्ञानिक अनुसंधान की ओर बढ़ पाता है। प्रकृति का क्षरण मनुष्य का क्षरण है। आज इन बातों को वैज्ञानिक रूप से समझने की ज़रूरत है, जिसे कृष्ण के जीवन-चरित का अध्ययन कर बड़ी सुगमता से समझा जा सकता है। कृष्ण ने प्रकृति को बचाने का जो मार्ग सुझाया था उस मार्ग पर हम चल न सके। हज़ारों वर्ष बाद जो पर्यावरण पर संकट आने वाला था, कृष्ण ने तो उसका समाधान पहले ही हमारे समक्ष रख दिया था!
कृष्ण ने गौ, पर्वत और वन को अपना देवता मानते हुए इनको इंद्र से भी ऊपर माना और यही संदेश गोप लोगों को दिया। नदी-पर्वत और पेड़-पौधे, झुरमुट, लताएँ, गौएँ—सब के सब कृष्ण के जीवन के अविभाज्य हिस्से थे। गोचारण इन्हीं के बीच, तरह-तरह की बाल-क्रीड़ाएँ इन्हीं के बीच, असुरों का वध इन्हीं के बीच। उनके दिन-रात इनके बीच ही व्यतीत होते थे।
हरिवंश पुराण में कवि-कुल शिरोमणि व्यास जी ने कृष्ण के अगाध प्रकृति-प्रेम को दिखाया है। वे कृष्ण के मुख से ब्रज के सौंदर्य का विशद वर्णन करवाते हैं जिसमें शरद ऋतु की प्रकृति का वर्णन-विस्तार और सौंदर्य अद्भुत है। पेड़-पौधे, जलाशय में खिले कुमुद, चक्रवाक के जोड़े, क्रौंच पक्षियों की मधुर बोली, कमल से सजे जलाशय, खेतों की क्यारियाँ, विभिन्न रंगों के कमल, मोर, हँस, मंद गति से बहने वाली वायु, स्वच्छ आकाश, खिले हुए कास के फूल, यमुना नदी– इन सबका निराला और सटीक वर्णन है —यहाँ तक कि उन्होंने घास की कोमलता की भी जाँच-पड़ताल करवा दी है। तिनके तक को नहीं छोड़ा है। तरह-तरह के वृक्षों के नाम हैं, जैसे—असन, छितवन, कोविदार, वाणासन, निकुंभ, प्रियक, स्वर्णक, केवड़ा आदि। विविध रंगों वाले अनेक आकर्षक पक्षी हैं—उल्लू तक को नहीं छोड़ा गया है।8
सच पूछा जाए तो कृष्ण पर्यावरण-पुरुष हैं, जिन्हें नदी-पर्वत, पेड़-पौधे, पालित एवं वन्य जीवों, पशु-पक्षियों से प्रेम है और उनको सुरक्षित रखने की चिंता है। मनुष्य को कर्म, भक्ति और योग का संदेश देने वाले जगद्गुरु के रूप में तो कृष्ण की चर्चा पूरे विश्व में है, लेकिन कृष्ण का व्यक्तित्व उतना-भर नहीं है। गीता में कृष्ण ने अपने स्वरूप का रहस्य बताते हुए अपने को अजन्मा, तीनों लोकों का स्वामी, आदिकारण, अनादि-अनंत इत्यादि तो कहा ही है, साथ ही अपने को अचल पर्वतों में हिमालय पर्वत, वृक्षों के बीच पीपल का वृक्ष, घोड़े में उच्चैःश्रवा घोड़ा, हाथियों में ऐरावत हाथी और मनुष्यों में नृप, मछलियों में मगर और नदियों में गंगा कहा है।9
आज संकटापन्न धरती को देखते हुए कृष्ण के इस धरावत्सल रूप का भी स्मरण करना बहुत ज़रूरी है। आज वनों को काटकर कृत्रिम जंगल या पार्क बनाए जा रहे हैं, जिनके पीछे लाभ-लोभ की राजनीति है। वर्तमान समय में वृक्षारोपण तो हो रहा है, परन्तु बिना यह सोचे हुए कि हम किस प्रकार के वृक्षों का रोपण कर रहे हैं? वे हमारे हितैषी हैं अथवा शत्रु? ज़मीन से पानी खींचकर ज़मीन को निर्जल बनाने वाले, वातावरण को दूषित करने वाले या एलर्जी उत्पन्न करने वाले हानिकारक पेड़ों का रोपण कहाँ तक उचित है? हमारे प्राचीन पेड़-पौधे तो अब भुला दिए गए जो मनुष्य के हितैषी थे। उस काल में पेड़ों को उनके दाय, औषधीय गुणों और सघन छाया के कारण ही पूजा जाता था और इसी कारण समाज में उनका धार्मिक महत्त्व भी था।
आज हम कृष्ण के वृंदावन को याद कर पर्याप्त सुख का अनुभव तो करते हैं, अपने चारों ओर वैसा ही रमणीय वातावरण भी चाहते हैं। पर यह क्या धरती में मातृत्व भाव की प्रतिष्ठा किये बिना या प्रकृति को आदर दिए बिना सम्भव है? पेड़-पौधे, पर्वत-नदियाँ सबको प्रेम किये बिना सम्भव है? कृष्ण ने जो कर्म का संदेश दिया है, वह धरती, हवा, पानी तथा प्रकृति के उपादानों को सुरक्षित बनाए रखने के संदर्भ में भी लागू होता है। हर व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह अपने चारों ओर के पर्यावरण के प्रति सचेत हो।
हमें अपने चारों ओर की धरती एवं पर्यावरण को वृंदावन की तरह सुंदर-सुखद बनाने के लिए कृष्ण की तरह प्रकृति-प्रेमी भी होना होगा। प्रकृति यदि हमें पोसती है तो हमें भी उसका संरक्षण करना चाहिए। महानगरीय जीवन शैली के विकास ने हमारे प्राकृतिक जीवन को नष्ट-भ्रष्ट करके, कृत्रिम जीवन के प्रति दुर्निवार मोह जगा दिया है। मानव-मानव के भीतर अर्थलिप्सा और चिंता का समावेश कर दिया है। आधुनिक जीवन शैली में ज़रूरत से अधिक बनावटीपन और दिखावा आ जाने के कारण मनुष्य निसर्ग का गला घोंट रहा है। धरा से सिर्फ़ लेने और केवल भोगने की इच्छा प्राकृतिक उपादानों का विनाश कर रही है। कृष्ण की जीवन शैली हमें प्रकृति से जुड़ने और पर्यावरण के प्रति सचेत होने का संदेश देती है। अपने वातावरण को वृंदावन में परिणत करने के लिए कृष्ण-चरित के प्रकृति अध्याय को खोलकर पढ़ना बहुत ज़रूरी है।
पूर्व प्रोफ़ेसर एवं हिंदी विभागाध्यक्ष नीतीश्वर महाविद्यालय, मुज़फ्फरपुर
(बी आर ए बिहार विश्वविद्यालय)
संदर्भ:
- श्रीभवद्गीता
- श्रीमद्भगवतद्गीता
- गीत गोविंद
- श्रीहरिवंश पुराण
- श्रीहरिवंश पुराण
- श्रीमद्भगवद्गीता
- हरिवंश पुराण
- वही, हरिवंश पुराण
- वही, श्रीमद्भग्वद्गीता
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shaily 2025/10/24 07:42 PM
कृष्ण के प्रकृति प्रेम और सन्देश को प्रमुखता से प्रदर्शित करते हुए आपने समस्या पूर्व समाधान की बात की है। आलेख सारगर्भित और शोध पूर्ण है। परन्तु सुविधा के लालची इन्सान इस पक्ष को नहीं देखते। किसे दोष दें? जीवन की रफ़्तार को, वैश्वीकरण को, बढ़ती जनसंख्या या बढ़ती दूरियों को? प्रकृति और विकास साथ साथ सम्भव नहीं है। प्रकृति अपना संरक्षण स्वयं करती रही है। जब डायनासोर थे या आज जब इंसान हैं। मानव प्रगति के उस स्तर पर पहुंच गया है, जहां से विनाश आरम्भ होता है। पहले समझ में नहीं आता था कि कि खुदाई में अतिविकसित सभ्यता के अवशेष मिले। मन तर्क करता था कि जब विकसित सभ्यता थी तो नष्ट क्यों हुई? लेकिन विकास ही विनाश का कारण है। यह चक्र चलता रहता है, पहले सृष्टि फिर विकास और विनाश। पुनः आदिम युग से शुरुआत। रहिमन चुप ह्वै बैठिए देखि दिनन के फेर...